01 मार्च 2010

"मेरे पिताजी"

मेरे पिताजी काफी इमोशनल किस्म के इंसान थे, जैसे कि पहलवान लोग अक्सर हुआ करते हैं | पहलवान होने के नाते, जैसे इमोशनल होना उनका फ़र्ज़ था, वैसे ही इमोशनल होने के नाते थोड़ा गुस्सैल होना भी लाज़मी था | उनको पहलवान कहना अगर पूरा सही भी नहीं होगा,तो शायद गलत भी नहीं| वो अखाड़े वाले किसी पहलवान सरीखे नहीं,बल्कि पहलवान प्रवृत्ति के साधारण से व्यक्ति थे | 


यह बात और है उनको शरीर बनाने,कसरत करने वगैरह का काफी शौक था | वो दूध पीने, अच्छा खाना जैसे की अंडा, चिकन, मटन  वगैरह खाने के भी काफी शौकीन  थे और मूड होने पर साधारण खाना भी असाधारण तादाद में खा लिया करते थे| उनको  बात बात पे  मसल्स दिखाने की आदत थी और शक्ति प्रदर्शन से परहेज नहीं था | हम बच्चों को पीटने का कर्त्तव्य वो बड़ी निष्ठा से पूरा करते थे और कभी कभी मूड होने पर हमें पढ़ाने जैसा कठिन कार्य भी कर  लिया  करते थे |

ये पढ़ना लिखना मुझ जैसे खेल पसंद बालक के लिए काफी तकलीफदेह था|  यह तकलीफ, पढ़ाये जाने के  इन नाज़ुक क्षणों में अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाया करती थी | उनकी भूगोल की   क्लासों  में कुछ नक़्शे मेरे गालों पर भी छप जाते थे , गणित की क्लास में  हमें अपने दांत गिनने पढ़ते और अंग्रेज़ी की क्लास में हमारा  परिचय  हिंदी और पंजाबी के कुछ मोटे और असरदार शब्दों से  यदा कदा होता ही रहता था |

मैं अपनी किताबों में मानव चित्रों को दाड़ी - मूंछ लगाने और बिंदी,  तिलक , गहने आदि पहनाने में उस्ताद था | मेरे कलम से अक्सर, कार्टून और चित्र निकल कर कापी किताबों में छुप जाया करते थे | मेरे इस कला के प्रति  समर्पण की भावना को पिताजी कभी भी समझ नहीं पाए | मुझे यह कतई पसंद नहीं  था कि मेरी कापियां सादी और रंग  विहीन हों |अक्सर इस में मेरा साथ, टीचरों ने मेरी कापियों पर लाल  रंग से अपनी भावनाए उड़ेल कर तथा रिपोर्ट कार्डों को रक्तरंजित  करके खूब निभाया था |
मेरा दांया हाथ, मेरे बांये हाथ से कुछ विशेष कमज़ोर है| इसकी वजह, उसका काफी सालों तक निष्क्रिय रहना है| अब निष्क्रिय होने की साधारण सी वजह यह है कि ऊपर बतायी गयी अपनी हरकतों से अक्सर मेरा बांया हाथ मेरे बांयें गाल पर ही चिपका रहता था, उनके दांयें हाथ का मेरे बांयें गाल पर लगातार होते प्रेम प्रदर्शन के असर को कम करने के लिए |

अपने खेलने के पागलपन को लेकर, मैं काफी लोकप्रिय भी हुआ और लोक लज्जित भी | मेरा कंचे खेलने, लट्टू चलाने, कबड्डी और गुल्ली डंडे जैसे खेलों में कोई सानी नहीं था और क्रिकेट में अपने आस पास के मोहल्लों के नामी गिरामी लोगों में मेरा शुमार होता था | मैं अपने घर के करीब वाले पार्क में अक्सर, इन्हीं में से किसी एक खेल में में  लिप्त पाया जाता था| किसी एक ही बात पर रोज़ पिटने का अगर कोई वर्ल्ड रिकार्ड हो तो वो ज़रूर मुझ नाचीज़ को ही मिलेगा |

माँ चूंकि, ख़ुद नौकरी पर जाया करतीं थीं तो घर और छोटे भाई  की ज़िम्मेदारी मेरे इन गुणों के बावजूद मेरे कोमल कन्धों पर थी | नियमित रूप से इसे मैं बत्ती -पंखा चलते हुए, घर खुला छोड़ के खेलने भाग जाने जैसे कार्यों द्वारा काफी  कुशलता पूर्वक निभाया भी करता था | हाँ,एक बात मैं कभी नहीं भूलता था और वो था अपने छोटे भाई को जो मुझसे करीब छह साल छोटा था,हमेशा साथ लेकर खेलने जाना|
मैं लगभग रोज़ाना,  अभिमन्यु की तरह पार्क में खेलों की व्यूह रचना में फंस कर बेबस हो जाता था और निकल नहीं पाता था | ऐसे में अक्सर मेरे कृष्ण अर्थात पिताजी अपने सुदर्शन चक्र अर्थात मुक्के समेत वहां पहुँच जाते थे और मेरे सारे कौरव रूपी दोस्तों के चंगुल से पलों में निकाल ले जाते थे |

मेरा उनसे पार्क में सामना किसी भरत मिलाप से कम नहीं होता था | सबसे पहले बीच मैदान में खेलते हुए किसी आकाशवाणी जैसे गंभीर  गर्जन में अपना नाम सुनायी देता और फिर पार्क के दूसरी और एक कोने में खड़े उस दिव्य स्वरुप  के दर्शन होते थे | उन्हें देख कर मैं चमत्कारिक रूप से अभिमन्यु से अर्जुन  बन  जाता था और पलक झपकते ही सारे व्यूह तोड़ कर मार्ग बनाता हुआ प्रभु श्री के सामने  अवतरित हो जाता था | फिर वहां से शुरू  होती मेरी परेड, जो छब्बीस जनवरी की झांकी का  सा  दृश्य  उपस्थित करती थी| मेरी बैंड बजाते हुए,तरह तरह के आयुधों से शक्ति  प्रदर्शित  करते हुए पिता श्री,उछल उछल कर पिटते गिरते बेटा  श्री और सड़क  के दोनों ओर खड़ी विस्मित तथा मंत्रमुग्ध जनता श्री |  
धीरे धीरे, यह मार्मिक झांकी मोहल्ले  के राजपथ से होती हुई,  राष्ट्रपति भवन अर्थात घर पहुँचती थी | वहां सबसे  पहले मेरी ऑंखें  चार होती थीं, अपने छोटे भाई से, जो हमेशा ही खिल्ली उड़ाने, आत्म विभोर होने और मासूम से दिखने के मिले जुले भाव लिए मुझे देख रहा होता था |

बर्मूडा ट्रेंगल की तरह यह रहस्य, आज तक तक मेरी समझ में नहीं आया,कि वो कब और कैसे इन सब से ठीक पहले पार्क से  अंतर्ध्यान  हो जाता था और अपने आप को इस पावन प्रेम वर्षा से कैसे बचा लेता था | पिताजी के, मेरे मोहल्ले के किस हिस्से में, या पार्क के किस कोने में होने की सटीक जानकारी होने के पीछे,  मुझे आज भी उसका ही हाथ लगता है |ये और बात है कि ये कभी भी साबित नहीं हो पाया | 


 इन सब का ये मतलब नहीं है कि मेरा सारा बचपन पिटते हुए और पिताजी की सारी जवानी मुझे पीटते हुए ही बीती थी | इन सब के बीच ऐसे ढेर सारे क्षण हैं जहाँ वो कभी दोस्त बन कर साथ खेलते थे, पिता बनकर मार्गदर्शन देते थे और  हमारी ज़रूरतों का भी पूरा ख्याल रखते थे |

वे काफी मज़ाहिया तबियत के इंसान भी थे उनके साथ मस्ती के और हंसी मज़ाक हंसी के क्षण भी काफी हुआ करते थे | वे सब भी, मुझे काफी अच्छे से याद हैं | यह और बात है कि उनकी इमोशनल प्रवृत्ति और हमारी नादान प्रवृत्ति  के कारण उन क्षणों में भी अक्सर हमारा बांया हाथ हमारे बांये गाल पर ही रहता था |


पिताजी का स्वर्गवास उस समय हो गया था जब मैं सिर्फ १६-१७ साल का था| अपने  जीवन के ढेरों पलों में उनका साथ ना होना और कभी कभी उनके झापड़ों का अभाव  मुझे बहुत खला है | इनकी कमी मैं इन क्षणों को बार बार जीकर पूरी करता हूँ | यकीन मानिए, कि मुझे कभी कभी वो बच्चे जिनकी यदा कदा पिटाई नहीं होती (जिनमे ख़ुद मेरा  बेटा भी शामिल है) बड़े अभागे  से  दिखते हैं| वे सारे कितना वंचित हैं इस थप्पड़ रूपी प्रशाद के सुख से  जिनका अपना ही स्वाद और आनंद है तथा अपनी यादों में एक वी वी आई पी जैसा स्थान है |


- योगेश शर्मा

7 टिप्‍पणियां:

  1. arun tiwari2/3/10 6:42 pm

    sweetu!
    tum ne to bhai gazab kar diya.
    Pitaji ka aisa bakhan, Mahesh Bhatt ( on other accounts of boldness)ka baad pehali baar dekhne main aaya.
    Ek baat to hai- tum "vyangya vidha ke sashaqt hastakshar" hone ka maadda rakhte ho- yeh baat aur hai ki- samprati, Jeevanyaapan aur jivika arjan ke liye EMAAR ki sewa main nihit"

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  2. Dhanyawaad !!yoon hee saahas dete rahein - Yogesh

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  3. प्रभावशाली एवं जीवंत अभिव्यक्ति...!!!

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  4. दमदार लिखा है आपने ...

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  5. Very enjoyable blog - me and muskan both laughed a lot.....suitable poignant conclusion !

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  6. योगेश भाई, अब क्या कहूं। शब्द अवश्य ही कम पड़ेंगे आपकी इस सुंदर सी रचना के संबंध में कहने के लिए। अति अति उत्तम। आप ऐसे ही लिखते रहे।

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