09 अप्रैल 2010

"शहर"




हसरतों के अनगिनत से ख़्वाब भर के नज़र में
अजनबी से घूमते हैं दोस्तों के शहर में,

सब तरफ शक्लें ही शक्लें और छाया है हुजूम,
पहचानना खुद को है मुश्किल भीड़ के इस शहर में,

तौलते लाखों दफा, तब कहीं लब खोलते हैं,
मासूमियत खो सी गयी है अक्ल के इस शहर में,

चेहरे हैं कितने जुदा पर आइने बिकते हैं कम,
अक्स सारे हैं एक जैसे कांच के इस शहर में,

सुबह कि पहली किरन से, रात के आखिर पहर तक,
दौड़ने का हुनर सीखा रफ़्तार के इस शहर में,

प्यास ने तड़पाया इतना पानी से रंजिश हो गयी,
 आशियाँ आकर बनाया सेहराओं के इस शहर में |



- योगेश शर्मा (मुंबई की यादों से)

4 टिप्‍पणियां:

  1. aapki taareef me to shabd kam padne lage hain....
    प्यास ने तड़पाया इतना, पानी से रंजिश हो गयी,
    आशियाँ आकर बनाया, सेहराओं के इस शहर में |
    waah...

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  2. प्यास ने तड़पाया इतना, पानी से रंजिश हो गयी,
    आशियाँ आकर बनाया, सेहराओं के इस शहर में |

    -बहुत खूब!! उम्दा रचा है!!

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