17 अप्रैल 2010

"मन के घोड़े"

मन के घोड़े कभी न थकते,
न होते बोझिल, ना हाँफते,
नहीं झुलसते कभी धूप में,
ये ठण्ड से नहीं कांपते,

इन पर यादों की कसे लगाम,
अपनी आँखों को बंद किये,
जाने अनजाने सपनों को,
उड़ता हूँ, मैं संग लिए,
न, वक्त की कोई हद रहती,
न, उम्र का ही रहता एहसास,
जितना ही जाता हूँ ऊपर,
उतना, खुद के आ जाता पास,

न देख रहा कुछ और, मैं अब,
न किसी को दिखता हूँ, अब मैं,
न बोल रहा, न कोई सुन रहा,
अब कोई है, तो हूँ बस मैं,



आते पल और गुज़रे कल,
दोनों ही इक हो जाते हैं,
क्या सच है और ख्वाब हैं क्या,
सब मुझमे ही खो जाते हैं,


बस मैं, और मेरे ये घोड़े,
जो सरपट दौड़े जाते हैं,
इस दुनिया के भीतर ही,
दूजी दुनिया दिखलाते हैं


- योगेश शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बस मैं, और मेरे ये घोड़े,
    जो सरपट दौड़े जाते हैं,
    इस दुनिया के भीतर ही,
    दूजी दुनिया दिखलाते हैं




    BAHUT KHUB

    SHEKHAR KUMAWAT

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  2. "अपने में मस्त है कविता..."

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  3. बस मैं, और मेरे ये घोड़े,
    जो सरपट दौड़े जाते हैं,
    इस दुनिया के भीतर ही,
    दूजी दुनिया दिखलाते हैं

    -क्या बात है..बेहतरीन!

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