28 अप्रैल 2010

'इन्तेहा'





गया जो छोड़ के, तो बदनसीबी उसकी है
बहुत हैं राहों में पड़े, नज़र बिछाये हुए

उसे तो हमारी, बहुत जरूरत थी,
हम ही बिछड़ने की, हसरत थे छुपाये हुए,

साथ उसका छूटा, तो ज़ंग उतरने है लगा,
अरसा गुज़रा है ख़ुद को आज़माए हुए,

तुम एक रात के जागे हो यूं परेशां हो,
यहाँ इक उम्र बीती, हमें नींद आये हुए,

कहाँ दुनिया को है फुर्सत, हमे तंग करे,
ख़ुदी के मारे हैं हम, अपने ही सताए हुए,

गली के बच्चों की ही, कुछ शरारत होगी,
ज़माना गुज़रा, किसी को दरवाजा खटखटाए हुए,

चाहता हूँ, अब कोई और सज़ा दे मुझको,
थक चुका हूँ, ख़ुद को ख़ुदा बनाए हुए


- योगेश शर्मा

4 टिप्‍पणियां:

  1. kya hua sirji aaj kal prem me khuddari dikha rahe hain....dil toota kya...:D

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  2. गली के बच्चों की ही, कुछ शरारत होगी,
    ज़माना गुज़रा, किसी को दरवाजा खटखटाए हुए,


    क्या बात है , अच्छी रचना

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  3. Bhai Dilip...aap jaante hain ki likhne waalon ko bahut se chouge pahanne padhte hain...kisee azeez ke lahoo kee syaahee apnee kalam se baahar aa rahee hai ...aapkee bhabhee ne ek baar haath pakdaa to fir yeh din dekhne ko taras gaye ..

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  4. तुम एक रात के जागे हो यूं परेशां हो,
    यहाँ इक उम्र बीती, हमें नींद आये हुए,

    -बहुत खूब!

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