18 अप्रैल 2010

'हमसाया'


  
उठ के हर सुबह, ख़ुद को,
फ़लक पे टांग देता हूँ,
ख़ुदा से फिर दुआओं में,
ख़ुद को मांग लेता हूँ,

धूप फांकते हुए,
चलता हूँ दोपहर भर , 
 थक के चुल्लुओं से तब
सांझ को गटकता हूँ, 

आँख के निवालों में,
निगलता हूँ चांदनी को ,
रात के समंदर में,
हर रात यूँ ही ढलता हूँ,


लोरियां सुना ख़ुद को,
 नींदों में धकेला है ,
पालता हूँ साए को,
ख़ुद पे नज़र रखता हूँ, 

ख्वाब जो भी आते हैं,
बांटता हूँ अपने से,
इस तरह यूं, साथ अपने,
बरस बरस चलता हूँ,

ऐसे, हर सुबह ख़ुद को,
फ़लक पे टांग देता हूँ,
ख़ुदा से फिर दुआओं में,
ख़ुद को मांग लेता हूँ 

ख़ुदा से फिर दुआओं में,
ख़ुद को मांग लेता हूँ...


- योगेश शर्मा

5 टिप्‍पणियां:

  1. aapke ratnon me ek aur bahumuly ratn...waah...bahut khoob....
    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  2. बहुत अच्छी रचना , सत्य भी , ...अधिक मैं नहीं जानता कैसी है, बस मुझे सच में बहुत पसंद आयी, चलते रहिये लगातार .... हम भी साथ है http://athaah.blogspot.com/

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  3. दिलीप भाई यूं ही पढ़ के हौसला बढ़ाते रहें| अपनी कलम के इंजन का का तो यही बूस्टर है|शुक्रिया|

    मीणा जी आपका बहुत बहुत आभार |

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  4. बांटता हूँ अपने से,
    इस तरह यूं, साथ अपने,
    बरस बरस चलता हूँ,
    khub kaha..

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  5. फिर ख़ुदा से दुआओं में,
    ख़ुद को मांग लेता हूँ,

    ...BEHHAD PARBHAVSHALI

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