12 मई 2010

'रिश्तों का पिंजरा '



द्वार  खुला कबसे,
पिंजरे का ,

पंछी, फिर भी बैठा है,
"उड़ जा उड़ जा,
वक्त यही है",
पल पल खुद से कहता है,


लाख जतन कर भी,
उड़ने की,
हिम्मत जुटा न पाता है,
पंख भी हैं,
है  मौक़ा भी
फिर भी उड़ ना पाता है,


है ऐसा क्या,
जो रोके रस्ता
कैद से मुक्ति पाने का,
प्रेम है ये पिंजरे का,
या फिर,
पिंजरे के रखवाले का,


सोचता है,
क्या सचमुच ही,
आकाश में उड़ने का दिल है?
या ढूँढ रहा,
मन एक बसेरा,
ये पिंजरा ही मंज़िल है,



इन सोचों में डूबा,
खुद से,
बातें करता जाता है,
पंख भी हैं,
है  मौक़ा भी,
फिर भी उड़ ना पाता है |

- योगेश शर्मा

7 टिप्‍पणियां:

  1. गहन चिंतन और सार्थक सोच की अभिव्यक्ति /

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  2. गजब की सोच है आपकी , किसी के मन को पढ़ पाना बड़ा मुश्किल कार्य होता है , बहुत खूब ।

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  3. jha ji,Mithilesh bhai aur Sanjay bhai bahut aabhaar aap sab ka

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  4. बेनामी13/5/10 12:13 am

    bahut hi gehre bhaw...
    achhi rachna...
    badhai.....
    idhar ka bhi rukh karein...
    http://i555.blogspot.com/

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