24 मई 2010

'मैं ज़मी हूँ'



मैं ज़मी हूँ,मेरी मिट्टी से तन बनते हैं,
घर बनते,शहर बनते,वतन बनते हैं, 


खेत उगते हैं,बाग़-ओ-चमन बनते हैं,
बुत बनते,तो कहीं ताज महल बनते हैं,

सर उठाये हुए पर्वत,सभी मुझसे हैं बने,
लहलहाते हुए दरख़्त भी मैंने हैं जने, 


 मैं हूँ ज़िंदा,सांस लेती हूँ साँसे देती हूँ,
जिसपे चलते हो उम्र भर,वो राहें देती हूँ,

 मैंने जी जान से,हर रंग में तुम्हे पाला है,
अपनी नेमतों का साया तुम पे डाला है

सब मेरे हैं एक जैसे,मैं किसी की न हुई ,
न गयी साथ किसी के,बस यहीं ही रही,

न जाने लोगों को ऐसा क्यों वहम ही रहा,
वो करते राज हैं मुझपे,उन्हें भरम ही रहा 

अब ये तुम पर है,चाहो तो उठाओ मुझे,
लगाओ आँखों से,माथे पर सजाओ मुझे,

या लड़ो जंग,सरहदें खींचों बदन पे मेरे,
खुद बनो लाशें,और खँडहर बनाओ मुझे

जलाओ चेहरा मेरा,सूरत बिगाड़ दो मेरी,
रौंदों मुझको और बमों से उड़ाओ मुझे,


मैं रहूँ जैसी,तुम्हें मुझमें ही मिलना होगा,
 या राख होकर,मेरे धारों में घुलना होगा,

मैं ज़मीं हूँ,मेरी मिट्टी से तन बनते हैं,
घर बनते,शहर बनते,वतन बनते हैं |



 
- योगेश शर्मा

10 टिप्‍पणियां:

  1. अच्‍छी और समझदार भावनाएं हैं जी, सबको सीखना चाहि‍ये कुछ...

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  2. मैं ज़मीं हूँ,
    मेरी मिट्टी से तन बनते हैं,
    घर बनते,
    शहर बनते, वतन बनते हैं |
    बेहतरीन, बहुत कुछ कहा आपने अपनी रचना के माध्यम से.

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  3. मैं रहूँ जैसी, तुम्हें मुझमें ही मिलना होगा, या राख होकर, मेरे धारों में समाना होगा,
    मैं ज़मीं हूँ, मेरी मिट्टी से तन बनते हैं,घर बनते, शहर बनते, वतन बनते हैं |


    अच्छी रचना ...हम ,तुम, सब , ये जहाँ सब इसी मिटटी से बने है ....सुन्दर प्रस्तुति

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  4. waah sirji jamin ka dard bakhubi baya kar diya...bahut sundar

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  5. सुंदर पंक्तियों से सजी..... बहुत सुंदर रचना....

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  6. बहुत सही...उम्दा सोच!!

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  7. apni bhavnaayein vyakt karne karne ke liye aap sabhee ka bahut bahut aabhar

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  8. बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है

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  9. आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ, क्षमा चाहूँगा,

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