25 मई 2010

'वो ठेले वाला'




तपती सड़क पे वो, नंगे पांव चल रहा था
धरती धधक  रही थी, आकाश जल रहा था

कभी खींचता था ठेला, कभी ख़ुद को धकेलता था
पीछे को हाथ कर कभी,  सामान टटोलता  था

दहकते बदन से जैसे, बारिश सी हो रही थी
पसीने की बहती धारें, कपड़े  भिगो रही थी

बहता हुआ पसीना, आँखों में जा रहा था
खाली कटोरियों में कांटे चुभा रहा था

रह रह उठा के नज़रें,  ऊपर को  देखता  वो  
बादल का कोई टुकड़ा, मिल जाए सोचता वो  

कोई पेड़, कोई साया मिल जाए इक घड़ी जो  
तो रुक के पोंछ लूं, इस बहती हुई झड़ी को

आँखों का दर्द, पैर के छालों से लड़ रहा था
दोनों में कौन ज्यादा, झगड़ा ये बड़ रहा था

बदन में  हल्की हल्की इक टीस सी उठी फिर
सीने को पहले जकड़ा काबू में फिर किया सिर

फिर हाथ - पांव ऐंठे, आँखे पलट गयी
छुट गया वो ठेला, गाड़ी उलट गयी

घुटनों ने साथ छोड़ा, गिर पड़ा वो नीचे
और चल दिया जहाँ से, आँखों को अपनी मींचे

कुछ देर में वहाँ पर मजमा सा लग गया   
कितना था बदनसीब वो हर कोई कह रहा   

किसी शख्स ने दया की और  जिस्म ढक दिया 
कुछ दूसरों ने मिलकर, उसे साए में रख दिया 

छट गया ये जमघट थोड़ी ही देर में 
हर कोई चल पड़ा फिर अपने जहान  में

करिश्मा तभी अचानक न जाने हुआ कैसे
मुर्दे के जिस्म से एक आवाज़ आयी जैसे 

"मरने के बाद ही सही, छाया  हुयी नसीब
तुम सब रहो सलामत, दुआ दे ये बदनसीब  "  |



- योगेश शर्मा

5 टिप्‍पणियां:

  1. waah bahut sundar kavita aur maarmik vritaant...katoriyon waali baat bahut badhiya lagi sir....kya kare 37.5 % log gareebi rekha ke neeche hain....UPA ne 1 saal bhi poora kar liya...kathputli ghuma ghuma ke....inka kuch nahi hua...

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  2. वाह ! मेरे दोस्त गज़ब का लिखा है .....बहुत ही दर्दनाक और हिरदय विदारक चित्रण किया है .....यही सच्चाई है...ऐसी रचना बहुत दिनों बाद पढने को मिली ...मुझे इस प्रकार की रचनाएँ जो सच को गहराई तक उजागर करे ..बहुत पसंद है ....आपकी कविता वाकई काबिले तारीफ़ है ...प्रभावशाली और शानदार रचना ..

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  3. आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,

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