05 जून 2010

'बावरा सा घूमता है'




  


बावरा सा घूमता है
 हर कली को चूमता है
पंखुरी से लिपट कर के
छोड़ देता अधर धर के
उसको न रस की कामना है
बस एक कली को ढूँढना है


बंद जिसकी पंखुरी में,
बीती थी कल रात सारी,
वो कली थी कितनी प्यारी,
रूप उसका, दमक उसकी,
स्पर्श औ रस गंध उसकी,
मदमस्त करती गयी थी ,
रात ज्यों ढलती गयी थी ,
उन्माद बढता ही गया था ,
ज़हर चढ़ता ही गया था ,
मिलन में वो खो गया,
जाने कब फिर सो गया,


भोर की पहली किरन से,
बयार की कोमल छुअन से,
वो रात की सोयी कली,
अंगड़ाई लेकर जब खुली,
फूल था बनना पड़ा,
भंवर को उड़ना पड़ा,
रात की फिर यादें लेकर,
और मिलने के वादे देकर,
बाग से निकल पड़ा,
गुनगुनाता चल पड़ा,


शाम को लौटा वो भौरां,
बाहों में खोने रात भर,
न उस कली का कुछ पता ,
न थी कहीं कोई खबर,
तोड़, दिन में माली ने,
बेच उसको था दिया,
रूप और यौवन का उसके,
काफी बड़ा सौदा किया,


तबसे यह भंवरा बिचारा,
दीवानगी में मारा मारा,
हर जगह और हर किनारा,
छाने है बाग सारा,
रो रो के पूछें क्यारियों से,
पत्तियों, फुलवारियों से,
खो के सुध - बुध बेखबर,
कोई कुछ दे दे खबर,


गिड़गिड़ाता घूमता है,
हाथ सबके जोड़ता है,
काटों से होता है छलनी,
पेड़ों से सिर फोंड़ता है,
हर फूल से मिलता गले,
हर कली को चूमता है,
बावरा सा घूमता है,
उस कली को ढूँढता है,
बावरा सा घूमता है,
बावरा सा घूमता है



- योगेश शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता।
    लेकिन ये भँवरा तो बड़ा रसिक है - एक 'कली' को ढूँढ़ने के लिए कई 'कलियों' को चूमता है :)

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  2. bahut khub



    फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  3. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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