10 जून 2010

हवाओं के सलाम



अंधेरों में नहीं हमको कभी कोई पयाम आये ,
चराग़ों को जलाया तो हवाओं के सलाम आये

मुहब्बत भी ज़माने में रही अब सौदेबाज़ी है
इधर नज़राना दिल भेजा उधर से दिल के दाम आये

बहुत था शौक़ जीने का तो मरने की सज़ा माँगी,
रहेंगे दास्ताँ बनकर शहीदों में जो नाम आये

ये मत समझो कि मेरे हाथ ख़ुद से उठ नहीं सकते,
तमन्ना है कि होंठों तक कभी ख़ुद चल के जाम आये

ये साँसे तोड़ती हैं दम, दुआ निकले यही लब से,
जिस्म का मेरा हर कतरा मेरे कातिल के काम आये


- योगेश शर्मा

6 टिप्‍पणियां:

  1. मुहब्बत भी ज़माने में, बस अब सौदेबाजी है,

    इधर नज़राना दिल भेजा, उधर से दिल के दाम आये

    Waah,बहुत खूब, सुन्दर !

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  2. ...बहुत सुन्दर ... बेहतरीन गजल!!!

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  3. waah siji ek ek sher lajawaab...bahut khoob...

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  4. आपकी बात ही अलग है... नए आयाम प्रस्तुत करती.... सुंदर रचना...

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  5. बहुत सुंदर !
    कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !

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