30 जून 2010

'खड़ा हूँ इक बुलंदी पर'





खड़ा हूँ इक  बुलंदी  पर, मगर ये दिल  अकेला है
वहां कुछ  दूर  बस्ती  में, लगा खुशियों  का  मेला  है

कभी  ये  सोचता था  बस,  बड़ा हो जाऊं पल भर  में
नदी ये  जल्द  जा  पहुंचे , जवानी  के समंदर  में
न  जाना  इस  जवां  दरिया  में,  तूफानों  का  रेला   है
खड़ा हूँ इक बुलंदी पर, मगर ये दिल अकेला है

फ़लक  पर  हों  कदम  तो,  रोशनी नज़दीक  आती है
झुलसता  है मगर सब कुछ, ये आँखे चौंध  जाती  हैं
ज़मीं  पे  थे तो आसां  था, यहाँ  कितना झमेला है 
खड़ा हूँ इक बुलंदी पर, मगर ये दिल अकेला है

जो  पीछे  छोड़  आया  हूँ, वो फिर से आ ही जाता है 
कभी  सोचों  में  आके, एक  बच्चा मुंह चिढाता  है
बुलाता है  वो घर आँगन, जहाँ  बचपन  में खेला है
खड़ा हूँ इक बुलंदी पर, मगर ये दिल अकेला है


- योगेश शर्मा

4 टिप्‍पणियां:

  1. खड़ा हूँ इक बुलंदी पर, मगर ये दिल अकेला है
    bahut sundar prastuti

    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  2. bahut khoob... maine bhi ek aisi hi rachnaa kee thi, dard tha shayda iss doud mein aagey hokar akele hone kaa... usi rachnaa kee kuchh pankityaan...

    लोंगो को देखा हमेशा दौड़ते-भागते
    न जाने क्या पा लेने की होड़ में हैं
    न किसी को चैन है और न ही आराम
    सभी सिर्फ आगे आने की जोड़-तोड़ में हैं...
    क्या खो दिया इस सफ़र में, ग़म नहीं किसी को इसका
    बस ख़ुशी है कि एक पायदान ऊपर चढ़ गए...
    सवाल इतने...

    चेहरे पर हंसी तो है, पर त्योरियां तो भी चढ़ी हैं
    न जाने कितने बगुलों कि आँख, सिर्फ एक ही मछली पर अड़ी हैं...
    ऐसी जीत की ख़ुशी या जश्न मनाएं भी तो कैसे???
    जिसके लिए,
    हम अपनों को पीछे छोड़ आगे बढ़ गए...
    सवाल इतने...

    जवाब देंहटाएं
  3. अहा!! वाह! बहुत प्रवाहमयी रचना...आनन्द आ गया पढ़कर.

    जवाब देंहटाएं
  4. जो पीछे छोड़ आया हूँ, वो फिर से आ ही जाता है
    कभी सोचों में आके, एक बच्चा मुंह चिढ़ाता है
    बुलाता है वो घर आँगन, जहाँ बचपन में खेला है
    खड़ा हूँ इक बुलंदी पर, मगर ये दिल अकेला है

    bahut achhi lagi aapki kavita..

    जवाब देंहटाएं

Comments please