21 जून 2010

सुनो ज़रा, क्या कहीं बचपन दिखा?




सुनो ज़रा !!
क्या कहीं बचपन दिखा?
मिल नहीं रहा, कई सालों से!
बच्चों में तो ढूँढ कर थक गया,
और बड़ों में दिखा,
सिर्फ...... बचपना

बच्चे , मासूमियत खो चुके हैं,
बड़े होने की जल्दी में,
या शायद,
बड़े होने के डर से,
और हम, लगे हैं,
इजाद करने में,
नयी नयी वजहें,
इन्हें जल्दी से बड़ा करने की,
सिलवटे टांग रहे हैं,
इनके माथों पर,
उतार कर अपने माथे से,


कभी कभी लगता है,
कि बचपन,
कहीं दब गया है,
किताबों के बोझ तले,
या फिर कहीं,
थक के गिर गया है
आगे रहने की,
जद्दो जहद में,
और, छोड़ गया है
इनकी शक्लों पर,
हमारे सपनों को,
पूरा करने की मजबूरी,
और,
सूनी आंखें,
हमारे चेहरों में तलाशती,
..... अपना बचपन





- योगेश शर्मा

6 टिप्‍पणियां:

  1. हमें भी तलाश है....


    बहुत प्यारी रचना! बधाई.

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  2. बेहतरीन रचना है योगेश भाई । सच में ही आजकल बचपन गुम हो गया है जिसे तलाश कर बच्चों को लौटाना बहुत ही जरूरी हो गया है

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  3. मैं अपना बचपन अभी भी नहीं खोना चाहता हूँ.... मैंने अपने बचपन को अभी तक अपने अन्दर सहेज कर रखा हुआ है.... आपकी यह रचना बहुत प्यारी लगी.....

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  4. कहाँ तक बचा पायें बचपन अपना ...
    अब तो बछो में भी बचपना नहीं रहा ...
    सुन्दर लगी रचना ...!!

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