27 जुलाई 2010

'बनकर ज़ुबां मेरी'



कल रात फिर मुझे वो मदहोश कर गया
बनकर  ज़ुबां  मेरी, मुझे खामोश कर गया

कोई याद, कोई हसरत, कोई  जुस्तजू  नहीं  
सारे जहां से ऐसे फ़रामोश  कर गया

अहले चमन में कब से खिज़ा के बसेरे थे
बन कर बहार मुझको, ग़ुलपोश  कर गया

आवारगी तो उसकी यूं भी  संभल ही जाती 
कमबख्त मुझको ख़ानाबदोश कर गया |


- योगेश शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. आवारगी तो उसकी यूं भी संभल ही जाती
    कमबख्त मुझको ख़ानाबदोश कर गया |
    बहुत सुन्दर
    आवारगी और खानाबदोशी में बहुत फर्क है

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  2. बहुत सुन्दर बढ़िया रचना ...

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  3. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

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