18 सितंबर 2010

'वो जो टुकड़ा है बादल का'





मैंने बचपन से, यादों में संभाला है जिसे
बंद पलकों  में, खुली आँखों में पाला है जिसे
दूर अम्बर पे , घटाओं  में, बसर मेरा है
वो जो  टुकड़ा  है बादल  का, वो घर  मेरा है

स्याह रातों में, बर्फ जैसे चमकता है जो
ज़र्द पतझड़ में, बहारों सा महकता है जो  
हर  एक लम्हा,  हर शाम -ओ- सहर मेरा है
वो जो  टुकड़ा  है बादल  का, वो घर  मेरा है


हर नयी सुबह, सदा दे कर उठाता है मुझे  
थपकियाँ देके थकी रातों में सुलाता है मुझे 
है मेरी रूह और जाने  जिगर  मेरा है
वो जो  टुकड़ा  है बादल  का, वो घर  मेरा है


न मैं रहता हूँ वहां, और न गया हूँ कभी
पर मेरे दोस्त,सभी अपने, बसते  हैं वहीं
 वो मंजिल नहीं, बस हमसफ़र मेरा है 
वो जो  टुकड़ा  है बादल का, वो घर  मेरा है
वो जो  टुकड़ा  है बादल  का, वो घर  मेरा है|


- योगेश शर्मा

4 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

    ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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  2. बहुत सुंदर कविता है वाकई....बहुत खूब

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  3. कितनी ग़ज़ब की कविता लिखी है आपने....कमाल कर दिया...

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  4. बेनामी19/9/10 3:04 pm

    bahut gajab ka lihte hai aap...
    umdaah rachna ke liye badhai...
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    मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
    जरूर आएँ...

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