11 जनवरी 2011

'आवारगी की कैद'



मैं चल रहा हूँ कबसे
मजे में साथ अपने
नये रास्ते बनाता  
नये देखता हूँ सपने


आवारगी ने मुझको 
है कैद किया जबसे
तबसे हूँ उड़ता पंछी
आज़ाद हूँ मैं तबसे


जाना मुझे किधर है 
कब  मुझको सोचना था
मंजिल को फ़िक्र होगी 
उसे मुझ तक पहुंचना था |

- योगेश शर्मा



12 टिप्‍पणियां:

  1. मस्त.. आबरा मैं भी होना चाहता हुं

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  2. बेहतरीन कविता है जी। धन्यवाद स्वीकार करें।

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  3. वाह ! ........... बहुत ही खूबसूरत

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  4. Bahut Khub
    http://amrendra-shukla.blogspot.com/

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  5. जाना मुझे किधर है
    कब मुझको सोचना था
    मंजिल को फ़िक्र होगी
    उसे मुझ तक पहुंचना था |
    bahut pasand aaya.

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  6. बेनामी31/1/11 4:29 pm

    "मंजिल को फ़िक्र होगी
    उसे मुझ तक पहुंचना था"

    निराली सोच - बहुत सुंदर

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