15 अक्तूबर 2011

'कल रात ख़ुद से गुफ़्तगू की थी'











कितनी ही छुपी बातें 
ज़ाहिर कीं थी 
कल रात
ख़ुद से गुफ़्तगू की थी ....

बहुत दिनों बाद, हम
अचानक टकरा गए थे
ख्यालों के मोड़ पर
ठिठक कर रुक गए थे
देर तक कोई, कुछ न बोला था
पहले नज़रें चुराईं
फिर आँख के कोनों से
शक्लों को टटोला था

एक दूसरे को
अजनबीयों सा देखते रहे
कुछ बोलें या चुप रहें
यही सोचते रहे
किसने शुरू की पता नहीं
पर बातें हाज़िर हो गयीं
कुछ शिकवों ने झांका
कुछ तल्खियां ज़ाहिर हो गयीं

कितनी शिकायतें, कितने ताने
पुरानी नाराज़गी ,नए मसले
कई पेंच लड़े
कभी खींच....कभी ढील
देर तक डटे रहे मैदान में
फिर डोर कटी दोनों की, एक साथ में

थक चुके थे हम
कुछ गुज़री बातों पर शर्मिन्दा भी थे
याद किया उन लम्हों को
जब हम बहुत करीब थे
बहुत देर संजीदा रहे
फिर,बेसाख्ता हंसी आ गयी
कौन पहले हंसा याद नहीं
किसी पुराने मज़ाक को
एक साथ छू लिया था शायद

हँसे थे बहुत खुल कर
बहुत देर तक
पहले झेंपते हुए, फिर
एक दूसरे का हाथ पकड़ कर
इतना हँसे कि 
जुदा हुए तो आँखें नम थीं

ख्यालों के उसी मोड़ पर
देर तक
ख़ुद को जाते देखता रहा
क्या जाना ज़रूरी था ?
ये भी सोचता रहा

कल रात
ख़ुद से गुफ़्तगू की थी,
फिर मिलने की
आरज़ू की थी

कल रात...........



- योगेश शर्मा

1 टिप्पणी:

  1. इतना हँसे कि जुदा हुए तो, आँखें नम थीं.

    अत्यंत भावमयी उदगार.

    सुंदर प्रस्तुति.

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