22 जनवरी 2012

'बुझी है लौ'


बुझी है लौ मगर
सिरा सुलग रहा है
धुंआ ये क्यों फ़िज़ाओं में
अब भी फिर रहा है
बरसों से रेंगता है
बनके ज़हर रगों में
बरसता नहीं ये बादल
कबसे घिर रहा है

हाथों में हाथ था जहां
अब उंगली के पोर हैं
उजाले हसरतों के
यूं तो चारो ओर हैं
दूरियों का लेकिन
अन्धेरा बिखर रहा है
धुंआ ये क्यों फ़िज़ाओं में
अब भी फिर रहा है 

अजनबी थी ये ज़मीं
और गैर सा था वो फ़लक
पर बड़ा अपना सा था
दूर था वो जब तलक
नज़दीकियों से जाने क्यों 
ये मन सिहर रहा है
धुंआ ये क्यों फ़िज़ाओं में
अब भी फिर रहा है 


- योगेश शर्मा

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी रचना लाजवाब है...शब्द और भाव बेजोड़...वाह...

    नीरज

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  2. बरसों से रेंगता है
    ज़हर बनके रगों में
    बरसता नहीं ये बादल
    कबसे घिर रहा है..

    Bahut sundar rachna sir.. :)

    जवाब देंहटाएं

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