10 अप्रैल 2012

"१९४७ की विरासत "





मेरे जहाँ की हद से कुछ दूर 
एक छोटा सा जहां और भी है
मेरे मकां से आगे कुछ दूर 
मिलते जुलते से मकां और भी हैं,

वो दिखते तो हैं करीब मगर,
पहुंचना उन तक बड़ा मुश्किल है,
एक खाई है दिलों की गहरी,
गुज़रना जिस से बड़ा मुश्किल है,

तह को पाना उसकी नामुमकिन    
भरा उस में आँखों का पानी 
जलती ख़बरों, सुलगते किस्सों में,
कभी विरासत में मिली यह कहानी ,

 ज़ात के ओढ़ के दस्ताने, कैसे इंसां ने  
यकीं कुचले और रिश्ते काटे   
बस्तिया फूंकी, घरों को रौंद दिया 
ज़मीं पे खींची हदें, हवा के हिस्से बांटे  

किसी जनम में चली गोलियां ढेरों,  
जिनके छर्रे हम बीन रहे हैं अब तक 
 नस्लें पैदा हई हैं ज़ख्म साथ लिए,
चोट गहरी थी कहीं इस हद तक 

इतनी गहरी कि इतने बरसों में,
इसकी आदत सी पड़ गयी हम को,
ज़ख्म जब भी भरने जो लगे  
नोच लेते हम  ख़ुद उन को 


कहीं कुछ हाथ हैं जो मिलना चाहें     
कहीं कुछ होंठ दे रहे आवाज़,
हर तरफ कैंचीयों का जंगल है,
फिर भी कुछ पंख भर रहे परवाज़ 


नहीं हैं मेरी ही उम्मीदें तनहा 
  मेरे जैसे परेशां और भी हैं  
मेरी बाहों की पहुँच से आगे  
कैद मुट्ठी में आसमाँ और भी है

मेरे जहाँ की हद से कुछ दूर 
एक छोटा सा जहां और भी है
मेरे मकां से आगे कुछ दूर 
मिलते जुलते से मकां और भी हैं ।




- योगेश शर्मा

5 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे जहाँ की हद से कुछ दूर
    एक छोटा सा जहां और भी है
    मेरे मकां से आगे कुछ दूर
    मिलते जुलते से मकां और भी हैं ।
    उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति।

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  2. बहुत कड़वा सच है यह हमारी ज़िंदगी का सार्थक एवं सटीक रचना.... समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  3. संवेदनशील ... रचना दिल को छूती है अनायास ही ...

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  4. मेरे मकां से आगे कुछ दूर
    मिलते जुलते से मकां और भी हैं....bahut sundar rachna...

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