पृष्ठ

14 सितंबर 2012

'आज फिर ख़ुद को बहलाया'



आज फिर ख़ुद को बहलाया
पैबंदो में कमीज़ को पाया
छत के छेदों से छिड़क कर तारे
चाँद रोटी की जगह खाया

आज फिर ख़ुद को बहलाया

मिजाज़ मौसम का रहा रूखा 
नल गली का फिर रहा सूखा
प्यास की नर्म लोरियां सुनते
 नींद आयी दर्द सब गिनते
कांटे गले के गिन नहीं पाया

आज फिर ख़ुद को बहलाया

देर से ही सही पर आती है
नींद संग अपने, सपने लाती है
उठा कर नींद के पिटारे से
पोंछ कर पलकों के किनारे से
एक  पुराना ख्वाब चमकाया

आज फिर ख़ुद को बहलाया

ख्वाब में फिर दिख गयी वो परी 
हाथ में जिसके थी जादू की छड़ी 
पूरी करती थी तमन्ना सबकी
लिख के रखी थीं जाने कब की
  सजा के दिल में आज फिर लाया

आज फिर ख़ुद को बहलाया

एक घर ,खाना ,ढेर से पैसे
थोड़ा शरमाया, मांगू सब कैसे
नींद तब जाने कैसे टूट गयी
ख्वाब की परियां सारी रूठ गयीं
आज फिर मांग कुछ नहीं पाया

आज फिर ख़ुद को बहलाया
पैबंदो में कमीज़ को पाया

आज फिर ख़ुद को बहलाया....



- योगेश शर्मा

2 टिप्‍पणियां:

  1. ना जाने कितने लोग आज भी यूं ही खुद को बहलाते है और एक हम हैं जो सब कुछ होते हुए भी गर्राते हैं।

    जवाब देंहटाएं

Comments please