दिल में ख़लिश छुपाए
चेहरे में थोड़े ग़म
हैं साथ में तो लेटे
पर अजनबी से हम
तक़रार में हुए हैं
जज़्बात बयां जबसे
माथे पे सिलवटें हैं
खामोश जुबां तबसे
हैं होंठ खुश्क थोड़े
आंखें हैं थोड़ी नम
हैं साथ में तो लेटे
पर अजनबी से हम
अपने अहम् से जबसे
नाता सा जोड़ बैठे
इक दूसरे से तबसे
रिश्ता ही तोड़ बैठे
अब एक सिरे पे वो है
दूजे सिरे पे हम
हैं साथ में तो लेटे
पर अजनबी से हम
खामोशियों के नश्तर
रुक रुक के गड़ रहे हैं
जिस्मों के फ़ासले भी
कुछ ऐसे बढ़ रहे हैं
जैसे चले नहीं हों
कभी साथ दो कदम
हैं साथ में तो लेटे
पर अजनबी से हम
साँसों की उसकी हलकी
आवाज़ लगे ऐसे
कहती हो बढ़ के आगे
फिर थामो पहले जैसे
कतराते यूं रहे जो
कुछ और थोड़ा हमदम
बन जाए न कहीं फिर
पूरे ही अजनबी हम
दिल में ख़लिश छुपाए
चेहरे में थोड़े ग़म
हैं साथ में तो लेटे
पर अजनबी से हम
- योगेश शर्मा
यूँ सोचते रहने से नहीं बल्कि संवाद की गर्मी से जमी हुई बर्फ को पिघलाइये और अजनबी के बजाए हमदम बन जाइये ।
जवाब देंहटाएंसही सुझाव संगीता जी। हालांकि ये मेरी कहानी नहीं है पर देखा जाए तो हम सभी के साथ कभी न कभी ऐसे पल गुज़रे होंगे 😊
हटाएंगहन भाव लिए लजवाब पंक्तियां ....
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