पृष्ठ

02 अप्रैल 2015

' कैसे झाँकू'



झाँकू भला मैं कैसे तेरी रूह की गहराई में
नज़रें उलझ जाती हैं तेरे जिस्म की परछाई में

डगर दिल तक पहुँचने की नज़र आती नहीं
निगाहें इस बदन के बाद कुछ पाती नहीं 

करी हैं कोशिशें अपनी मोहब्बत ही दिखाने की
नज़र छलकाती है लेकिन तमन्ना तुझको पाने की

हवस को इश्क़ कह कर खुद को बहलाया भी करता हूँ
कहीं तू पढ़ न ले मुझको ये अक्सर सोच डरता हूँ

मेरी शर्मिंदगी दिन में हज़ारों बार डँसती है
ज़हन की सर्द आवाज़ें कभी बे गैरत भी करती है

मज़ा सा आता है फिर भी मुझे रुसवाई में
मग़र फिर पूछता हूँ दिल से ये तन्हाई में

झाँकू भला मैं कैसे तेरी रूह की गहराई में
नज़रें उलझ जाती हैं तेरे जिस्म की परछाई में

झाँकू भला मैं कैसे तेरी रूह की गहराई में. . . 


 
- योगेश शर्मा 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Comments please