14 मई 2010

'बस एक दोस्त के नाम '

बस एक दोस्त के नाम उसी का पैगाम -




मोहब्बत एक सुबह उजालों से हो गयी
 दोपहर धूप से भी हो गया है प्यार
सितारे दिख रहे हैं कितने करीब अब
चाँद टंग गया है जैसे खिड़कियों के पार

 दिखने लगी है अब हर चीज़ ही हसीन 
हर शक्ल दोस्त जैसी लगने है अब लगी
हर शै में आ रहा है तबसे ख़ुदा नज़र 
जिस दिन से सांस मद्धम होने सी है लगी

नजरें क्यों सारी मुझको सहमी सी लग रहीं
पलकें क्यों अपनी अक्सर पा रहा हूँ नम
आवाज़ क्यों किसीकी अब शोर नहीं लगती
हर हाथ क्यों मुझे अब लग रहा है मरहम

वक्त सरकता था घुटनों के बल जो पहले
कमबख़्त आज है ये घोड़ों पे सवार
मिला तो रोज़ था आईने में ख़ुद से
 जाना है इन दिनों अपने को पहली बार

न जाने काम सारे अधूरे क्यों लग रहे 
लगता कभी है जैसे कुछ किया ही नहीं
 सांस की महज़ एक खींचा तानी की
इस ज़िन्दगी को ख़ुल के जिया ही नहीं

परेशान उम्र सारी किया ख़ुद को ख़ामख़ा
बेवजह ही दिल से लगाए गिले बहुत
बेफिक्र रह के थोड़ा कभी फिक्रमंद होके 
ये जिंदगी धुएं सी उड़ाई भी है बहुत

 ऐ दोस्त मेरी तुमसे इतनी सी है गुज़ारिश
देख कर मुझे तुम न झूठे मुस्कुराओ
बेचारा समझ कर मुझसे नहीं मिलो
ना मेरे हाल पर बेकार तरस खाओ

खुश हूँ जानकर भी कि वक्त अब है कम
लेकिन बचे पलों से अब भी है बहुत पाना
हर सांस लेता लम्हा एक पूरी ज़िंदगी है
खोकर कई जनम 
मैंने ये राज़ जाना |



- योगेश शर्मा

4 टिप्‍पणियां:

  1. मित्र रचना बहुत बढ़िया लगी .....लिखते रहिये .....

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  2. मेरी तो आंखें नम हैं, इससे ज़्यादा कुछ कह नहीं पाऊँगा।

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  3. मिश्र जी, मनोज जी और दिलीप भाई, सस्नेह धन्यवाद आप सभी का

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