09 जुलाई 2022

'अजनबी से हम'

 


दिल में ख़लिश छुपाए
चेहरे में थोड़े ग़म
एक बिस्तर पे लेटे
पर अजनबी से हम

तक़रार  में हुए हैं
जज़्बात बयां जबसे
माथे पे सिलवटें हैं
खामोश जुबां तबसे
हैं होंठ खुश्क थोड़े
आंखें हैं थोड़ी नम
एक बिस्तर पे लेटे
पर अजनबी से हम

अपनी अना* से जबसे
नाता सा जोड़ बैठे
इक दूसरे से तबसे
रिश्ता ही तोड़ बैठे
अब एक सिरे पे वो है
दूजे सिरे पे हम
एक बिस्तर पे लेटे
पर अजनबी से हम

खामोशियों के नश्तर
रुक रुक के गड़ रहे हैं
जिस्मों के फ़ासले भी
कुछ ऐसे बढ़ रहे हैं
जैसे चले नहीं हों
कभी साथ दो कदम
एक बिस्तर पे लेटे
पर अजनबी से हम

साँसों की उसकी हलकी
आवाज़ लगे ऐसे
कहती हो बढ़ के आगे
थामो पहले जैसे
कतराते यूं रहे जो
कुछ और थोड़ा हमदम
बन जाए न कहीं फिर
पूरे अजनबी हम

दिल में ख़लिश  छुपाए
चेहरे में थोड़े ग़म
एक बिस्तर पे लेटे
पर अजनबी से हम


अना - अहम् ,ईगो

- योगेश शर्मा 

10 जून 2022

'जलना ज़रूरी है'




हवा से ज़्यादा अपने से लड़ना ज़रूरी है
मैं आख़री चिराग़ हूँ जलना ज़रूरी है

बुझाने मुझको कबसे हवाएं चल रही हैं
रौशनी में लेकिन उम्मीदें पल रही हैं
संभालने को उनको संभलना ज़रूरी है
मैं आख़री चिराग़ हूँ जलना ज़रूरी है

सुलग सुलग के बरसों समेटा हुआ सभी
धुआँ भरा है मुंह में बांटा नहीं कभी
ज़हर पहले ख़ुद ये निगलना ज़रूरी है
मैं आख़री चिराग़ हूँ जलना ज़रूरी है

हवा को ये भरम उसमें ज़ोर है बहुत
और वक्त इस दिए का कमज़ोर है बहुत
सोच उसकी अब तो बदलना ज़रूरी है
मैं आख़री चिराग़ हूँ जलना ज़रूरी है

कुछ देर इस नश्तर को ढाल बनना होगा
मदमस्त थपेड़ों का हर वार सहना होगा
सांचे में नए फिर से ढलना ज़रूरी है
मैं आख़री चिराग़ हूँ जलना ज़रूरी है

हवा से ज़्यादा अपने से लड़ना ज़रूरी है
मैं आख़री चिराग़ हूँ जलना ज़रूरी है।



- योगेश शर्मा

06 जून 2022

'कुछ भी गलत नहीं'

 


कुछ भी गलत नहीं
कुछ भी सही नहीं
बातें वही हैं सच
जो हमने कही नहीं

लम्हों की हर हक़ीक़त
पलों की कहानियां
शोर करते किस्से
चुप सी निशानियां
कुछ दिल में छिप न पायीं
कुछ आँखों से बही नहीं

कुछ भी गलत नहीं
कुछ भी सही नहीं

चुपके से जो छुपा ली
माथे की सिलवटें
होंठों में जो दबा ली
वो मुस्कुराहटें
 न हों सकी किसी की
और अपनी रही नहीं

कुछ भी गलत नहीं
कुछ भी सही नहीं

ख़ामोश हैं नज़ारे
वादियां भी गुमसुम
दम तोड़ते से लगते
ये सांस लेते मौसम
आयी ख़िज़ा थी मिलने
वापस गयी नहीं

कुछ भी गलत नहीं
कुछ भी सही नहीं
बातें वही हैं सच
जो हमने कही नहीं। 


*ख़िज़ा - पतझड़ 


- योगेश शर्मा 

30 मई 2022

'आस्मां पे नज़र रखो'


आस्मां पे नज़र रखो
ज़मीं की भी ख़बर रखो
कस के थामो हाथ हिम्मत का
थोड़ी ज़िद थोड़ा सबर रखो

आस्मां पे नज़र रखो

पंख मज़बूत हों परवाज़* से पहले
हौसले वो जो हर तपिश सह ले
ज़ोर कितना भी हो हवाओं में
न सरक पाए ज़मीं पैरों तले
उससे रिश्ता बनाकर रखो
आस्मां पे नज़र रखो

ख़्वाब देखो जो नींदें उड़ाए
जुनून ऐसा हर थकन जो मिटाये
रौशनी के भरोसे रहना क्या
रखना अँधेरे में उम्मीदें जलाये
दिल में सूरज उगाकर रखो
आस्मां पे नज़र रखो

दुनिया तुमको आज़माएगी
हर कदम मुश्किलें बढ़ाएगी
बस बहारों में संग चलती है
बिगड़े मौसम में छोड़ जायेगी
दोस्ती ख़ुद से बराबर रखो
आस्मां पे नज़र रखो

ज़मीं की भी ख़बर रखो


*परवाज़ - उड़ान 


- योगेश शर्मा 


23 मई 2022

'अपनी तन्हाई'

 


अपनी तन्हाई से लिपट कर वो रोता ही रहा
अजनबी सा कोई पहलू में सोता ही रहा

इस यकीं में कि झूमेगी कभी फ़स्ल -ऐ- बहार
सब्र के बीज हर मौसम में बोता ही रहा

ज़िन्दगी तुझसे मोहब्बत का हासिल ये हुआ
दर्द मिलते ही गए चैन खोता ही रहा

पुकारता तो पलट आते वो क़दम शायद
उम्र भर उसको अफ़्सोस ये होता ही रहा

दर्द होगा तो एहसास रहेंगे ज़िंदा
इसलिए ज़ख्म अश्कों से धोता ही रहा

अपनी तन्हाई से लिपट कर वो रोता ही रहा...

- योगेश शर्मा 

16 फ़रवरी 2022

'अक्सर ये ख़्वाब मेरे'


जाती उम्र पे आते शबाब देखते हैं
अक्सर ये ख़्वाब मेरे कुछ ख़्वाब देखते हैं

डर डर के देखने में रखते नहीं यकीं
जो कुछ भी देखते हैं बेहिसाब देखते हैं

करती है ज़िन्दगी जो होश में सवाल
मदहोशियों में उनके जवाब देखते हैं

लम्हे मोहब्बतों के सूखे फूल बन कर
खो गए हैं जिसमें वो किताब देखते हैं

दिल में छुपी हुयी कुछ शर्मीली हसरतें हैं
परदे हटा के उनको बेनक़ाब देखते हैं

हो जाए रात कितनी भी स्याह मगर ये
बुझते से हौसलों में आफ़ताब देखते हैं

खोयी हुयी सी राहें नामुमकिन मंज़िलें
दिखती नहीं किसी को, जनाब देखते हैं

मायूसियाँ हों चाहे नाकामियां हज़ारों
मुझको ये हमेशा कामयाब देखते हैं

अक्सर ये ख़्वाब मेरे कुछ ख़्वाब देखते हैं


- योगेश शर्मा 

07 फ़रवरी 2022

'आसमां से इक सितारा'

 



आसमां से इक सितारा मेरी छत प
देखता रहता है मेरी ओर अक्सर

दूर से तकता हूँ बस चुपचाप उसको
वो झिलमिला के दे कई पैग़ाम मुझ को

बादलों में ग़ुम कभी हो जाए जब
दिल का फ़लक़ वीरान सा हो जाये तब

आसमां की छानता हूँ सारे राहें
जम सी जाती हैं घटाओं पर निगाहें

चिलमन हटा कर जब कभी बाहर वो आये
उसकी चमक चेहरे पे मेरे जगमगाये

सिलसिला कबसे न जाने चल रहा है
एक दीपक हसरतों का जल रहा है

छूने उसे यूं हाथ तो अक्सर बढ़ाये
पर सितारे भी कभी क्या हाथ आये

डर रहा हूँ साथ न छूटे हमारा
ख्वाब सा ग़ुम हो न जाए वो सितारा

थोड़ा डर और हसरतें पलकों में भर कर
फिर पहुँच जाता हूँ मैं हर रात छत पर

आसमां से इक सितारा मेरी छत प
देखता रहता है मेरी ओर अक्सर ।

 

- योगेश शर्मा

04 फ़रवरी 2022

'काफ़ी सिखाया वक़्त ने'

 



काफ़ी सिखाया वक़्त ने थोड़ा सिखा पाया नहीं
नज़रें झुकाना आ गया ये सर झुका पाया नहीं

दोस्तों से अब भला रिश्ते निभाता किस तरह
आदतें  मिलती नहीं फ़ितरत मिला पाया नहीं

उम्र तो अहले जहां को ही बदलने में गयी
मसरूफ़ इतना हो गया ख़ुद को बदल पाया नहीं

अश्क के लफ़्ज़ों से यूं बोला बहुत था रात वो
शोर में अपने अहम् के कुछ भी सुन पाया नहीं

जो बुझा न आँधियों में हौसलों का वो चिराग़
ख़ुशनुमा मौसम में ही कमबख़्त जल पाया नहीं

काफ़ी  सिखाया वक़्त ने थोड़ा सिखा पाया नहीं।



- योगेश शर्मा 

23 दिसंबर 2021

उसे यकीं है

                                       

उसे यकीं है दुनिया में
मुर्दे ही बस पनपते हैं
रूह नोचते जिस्मों से
अरमान क़त्ल करते हैं

इंसान दबे हैं कब्रों में
अपने ख़्वाबों की ज़मीन तले
दूर हैं अब उस दुनिया से
 जहां मुर्दों का अब राज चले

इक ज़माने में वो भी था इंसान
रोज़ साँसों को ग़र्क़ करता था
और तमन्नाओं के पिटारे से
रिसती उम्मीद देखा करता था

जा मिला उस हुजूम में वो कब
नहीं पता कुछ खबर न लगी
इन्सां रहने में उम्र बीती बहुत
मुर्दा बनने में इक घड़ी न लगी

अब नये रंग में मज़े में है
ख़ुशी के कहकहे लगाता है
रोज़ इंसान ढूंढ़ता है नए
रोज़ मुर्दे नए बनाता है
कोई इंसान बनना चाहे कभी
तो अपनी दास्ताँ सुनाता है
मुर्दा रहने से जो हुए हासिल
वो सभी फ़ायदे गिनाता है

सजदे कर के मुर्दा नगरी को
लहू के जाम पिए जायेगा
मरा तो जी उठा सदा के लिये
अब वो यूं ही जिये जायेगा |




- योगेश शर्मा

21 दिसंबर 2021

खिज़ा ने चाहा

                                        


खिज़ा ने चाहा वो हो गया है
फूल ख़ुश्बू से जुदा हो गया है

 चमन ग़ुलज़ार किया था उसने
फ़सल काँटों की भी बो गया है

परस्तिश की हसरत ऐसी जगी
वो अब अपना ख़ुदा हो गया है

तमाम उम्र पलकें ख़ुश्क़ रहीं
लम्हा छूकर उन्हें भिगो गया है

बहुत देर चीख़ा चिल्लाया
ज़मीर फिर थक के सो गया है

मंज़िलें ढूंढ़ता था शहर में जो
घर की दीवारों में खो गया है

सर्द एहसासों में झलकता है
लहू अब बर्फ हो गया है

बेरुख़ी में अजीब राहत थी
प्यार की बर्छियां चुभो गया है

खिज़ा ने चाहा वो हो गया है


      
 *खिज़ा - पतझड़ 
*परस्तिश - आराधना  
 


- योगेश शर्मा