13 मई 2010
"पथ के स्वामी"
लक्ष्य दूर,
भले हो कितना,
पथ हो दुष्कर,
चाहे जितना,
फूल बिछे हों, या अंगारे ,
चलना, उतना ही पड़ता है
लाख हों भय,
या हो असमंजस,
थका जिस्म,
या हो उकताहट,
श्रम से, जितना चाहे भागें,
अंत में, बढ़ना ही पड़ता है
लड़ना,
पहले होता है,
अपने से,
फिर कठिनाई से,
ख़ुद को जीता, फिर क्या है,
मंजिल को आना, ही पड़ता है
पाओ इक मंजिल,
फिर दूजी,
दौर, निरंतर चले सदा,
धूप से,
जितना भी झुलसा ले,
सूर्य को, ढलना ही पड़ता है
फूल बिछे हों, या हों पत्थर,
चलना, उतना ही पड़ता है
- योगेश शर्मा
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फूल बिछे हों, या हों पत्थर,
जवाब देंहटाएंचलना, उतना ही पड़ता है
और फिर चले बिना मंजिल तो नहीं मिलती
सुन्दर रचना
prerak rachna...
जवाब देंहटाएंsach kaha aapne....
लड़ना,
पहले होता है,
अपने से,
फिर कठिनाई से,
ख़ुद को जीता, फिर क्या है,
मंजिल को आना, ही पड़ता है
umdaah rachna...
yun hi likhte rahein.....
badi hi saargarbhit rachna sir...achchi seekh mili aapki kavita se...
जवाब देंहटाएंप्रभावकारी, शिक्षाप्रद रचना......
जवाब देंहटाएंसद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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एक शाश्वत सत्य है......
सदैव जीवन सदा समस्या,
सदा समस्या का हल मिलेगा।
कुछ और गहरी जमीन खोदो,
मिलेगा मरुथल में जल मिलेगा।।
अगर के बाटोगे आप खुशबू
तो हाथ महकेंगे आप के भी-
अगर किसी से जो छल करोगे
तो उसके बदले में छल मिलेगा।।
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
CHALTE RAHI......
जवाब देंहटाएंKYOKI BINA CHALE TO MANJILE MILEGI NAHI........