29 जुलाई 2010

'संभालो ज़मीन अपनी, मुझे उड़ना है'

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बहुत जिया, घुटनों पे अपने चल चल के
मरा हूँ रोज़, कतरा-कतरा तिल तिल के
नये सिरे से, आज खुद से जुड़ना है
संभालो ज़मीन अपनी, मुझे उड़ना है


आँखों को किये बंद, होंठों को सिये
कब से बैठा हूँ तूफ़ान इक सीने में लिये
तोड़ के सारी हदें, टूट कर के बहना है
संभालो ज़मीन अपनी, मुझे उड़ना है


हमेशा डर से हवाओं के, जलाया न दिया,
शमायें रख के सिरहाने पे, अंधेरों में जिया,
उठेंगे शोले, चिरागों को ऐसे जलना है
संभालो ज़मीन अपनी, मुझे उड़ना है


पुकारो जितना मुझे, लाख़ दे लो आवाजें,
किसी के रोके रुकेंगी, न अब ये परवाज़ें,
दिखी है राह नयी, पीछे नहीं मुड़ना है
संभालो ज़मीन अपनी, मुझे उड़ना है






- योगेश शर्मा

7 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर अभिव्यक्ति बधाई

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  2. ये हौसला ये उत्साह यूँ ही कायम रहे ...!

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  3. सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....

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  4. मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  5. अप्रतिम रचना...बधाई...
    नीरज

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