चढ़ते सूरज को सजदे लाख़ करो
डूबते दिन से बेरुखी न करो
खिलखिला लो नये चिरागों संग
पिघली शमों से दिल्लगी न करो
धूप उजली या दौर ऐ गर्दिश हो
अपने साए जुदा करते नहीं
वक्त के साथ बदल लो नज़रे
ख़ुद को इतना ख़ुदा करते नहीं
कोई भी दिन हो कोई हो मौसम
हर नये सूरज की शाम हो जाए
वक्त की ख़ास बात इतनी है
न जाने कब ये आम हो जाए
और कब जाने नसीब की सिलवट
वक्त के हाथों पलों में मिट जाए
रोशनी उसकी ही कोख़ से उपजे
रात जितनी भी बाँझ कहलाये
खिलते गुंचों से गुलशनों को भरो
सूखे पेड़ों को काटते न फिरो
चढ़ते सूरज को सजदे लाख़ करो
डूबते दिन से बेरुखी न करो
खिलखिला लो नये चिरागों संग
पिघली शमों से दिल्लगी न करो |
सार्थक और सराहनीय प्रस्तुती...
जवाब देंहटाएंखिलखिला लो नये चिरागों संग
जवाब देंहटाएंपिघली शम्मों से दिल्लगी न करो ..
बहुत संजीदा रचना ...बहुत से आयाम दिखते हैं ...एक दिन सबने जाना है ..बुझाते हुए चिरागों से दिल्लगी अच्छी नहीं ...
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
जवाब देंहटाएंकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
शानदार ……………गज़ब के भाव भरे हैं……………बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है और बहुत कुछ कहती भी है………………बेहतरीन्।
जवाब देंहटाएंbahot sundar.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंवाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
जवाब देंहटाएंखिलखिला लो नये चिरागों संग
जवाब देंहटाएंपिघली शमों से दिल्लगी न करो
बहुत सुन्दर