01 जून 2010

'कारवाँ

पुनः सम्पादित एवं प्रकाशित
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मैं चला तो था सफ़र में, कारवां के साथ साथ,
थे कहीं कन्धों पे बाहें, और कहीं हाथों में हाथ,
रास्ते में जाने कैसे, साथ हर छुटता गया,
जैसे जैसे वक्त गुजरा , काफिला घटता गया,
  

कुछ मेरी तेज़ी से न चल पाए, पीछे रह गए,
कुछ के क़दमों की, बड़ी तेज़ ही रफ़्तार थी,
कुछ से अलग थे फलसफे, कहीं समझ का था फासला,
कुछ से कहीं फितरत मेरी, मिलने को न तैयार थी,
 
 
कुछ दिल के ही हिस्से, मेरे हमदम, मेरे हमसाये थे,
उम्मीद पर, इक दूजे की, शायद उतर न पाए थे,
प्यार उनका, दिल से अपने, साफ़ भी न कर सका
और उनकी ग़लतियों को, माफ़ भी न कर सका,

 
धीरे- धीरे, थोड़ा थोड़ा, उनसे मैं कटता गया,
डूबकर अपनी सराबों* में, भटकता गया,
होश जब आया तो बस तन्हाईओं का साथ था
छाँव ग़ुम और सर पे रखा उदासीयों का हाथ था,


कारवाँ तो होगा कहीं पर, रास्ते में साथ साथ,
लोग चल भी रहे होँगे, दिए हाथों में हाथ,
मुझको खबर ही ना हुई कब अकेले छुट गया,
दूर पीछे बस निशां, क़दमों के चुनता रह गया |



-  *सराब = मृगत्रिष्णा

- योगेश शर्मा

6 टिप्‍पणियां:

  1. अति उत्तम ...प्रवाहमयी रचना

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  2. ज़िंदगी में ऐसे ही ना जाने कितनो का साथ छूटता है और कितनों का मिलता है....

    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  3. ज़िंदगी में ऐसे ही ना जाने कितनो का साथ छूटता है और कितनों का मिलता है....

    सुन्दर अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर मित्र ..विषय कोई भी हो ,,,,आपकी रचना का जवाब नहीं .....बहुत बेहतरीन लिखते हो

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  5. bahut achha laga pad kar bahut khub

    http://kavyawani.blogspot.com/

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