05 जून 2010

तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ




तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ
सोये स्वपन जगाऊँ

अनजाने भय से मन धड़के
कहीं कोई पत्ता न खड़के
नींद कहे मैं हुई पराई, वापस कभी ना आऊँ
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

कितना ख़ुद को जग से छुपाया
मन पर  इक आवरण लगाया
तोड़  के  सारे  बाँध  ह्रदय  के, लोरी  बन बह जाऊं
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

भाग्य रूठ कर कहीं पड़ा है
जग, बिसरा कर दूर खड़ा है
तेरे नयनों की बाती से मन का दीप जलाऊँ
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

माथे के बल, पोछ दूं सब मैं
जाती नींद को रोक के तब मैं
जब तक पलकें ना हों बोझिल, बालों को सहलाऊँ
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

हो  देह  जीर्ण  और  ह्रदय  व्यथित जब
सांस शीर्ण और  खिन्न ये चित्त, तब
मन  रखने  को  प्रिय तुम्हारा, कोई  गीत मैं  गाऊँ
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

फूटेगा,  यह  जीवन  घट जब
 स्वर्ग मिले, या मिले नर्क तब
हाथ पकड़ के क्यों न तेरा, आज  ही मोक्ष मैं पाऊँ
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

सोये स्वपन जगाऊँ
तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ ।





- योगेश शर्मा

6 टिप्‍पणियां:

  1. जब तक पलकें ना हों बोझिल , बालों को सहलाऊँ
    तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

    ... बेहद प्रभावशाली

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह वाह!! गाकर सुनाओ भाई तो आनन्द आ जाये. सुन्दर गीत!!

    जवाब देंहटाएं
  4. bahut khub



    फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह वाह्…………बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति………………कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बढ़िया गीत...

    फूटेगा, यह जीवन घट जब मोक्ष मिले, या मिले नरक तब
    हाथ पकड़ के क्यों न तेरा, आज ही स्वर्ग मैं पाऊँ तुम मुझको, मैं तुम्हें सुलाऊँ

    सुन्दर शब्दों का चयन ...

    जवाब देंहटाएं

Comments please