साहेबान, आज मैंने नास्टेल्जिक होने की ठान ली है और बेसाख्ता याद आ रही हैं सन पचास- साठ से अस्सी के दशक तक की हिंदी फिल्में .
मेरे ज़माने के बच्चों को बनाने बिगाड़ने के पीछे, माँ- बाप के साथ साथ हिंदी फिल्मों का बहुत बड़ा हाथ होता था| उनकी किसी बदमाशी पर आप उस ज़माने में बे झिझक फरमा सकते थे ' अरे पप्पू क्या तुम्हारे माँ, बाप, फिल्मों ने तुम्हें यही सिखाया है....नामाकूल " और शायद लोग आपकी इस बात को सीरियसली भी लेते | ये फिल्में हमारे जीवन का इक अभिन्न अंग हुआ करती थीं | वो इतनी शिक्षाप्रद भी होंती थीं कि पूछिए मत | हम सब उनसे रोजमर्रा की कितनी सारी नयी बातें सीखते थे, जैसे कि, फैशन के तरीके, चलने का ढंग, बालों का स्टाइल, लड़कियों को रिझाने के गुर, नई नई अदाएं , गुंडों को पीटने की कला, इत्यादि इत्यादि |
ये फिल्में, कभी भी विरोधाभासी चीज़ें दिखाकर दर्शकों को कंफ्यूस नहीं करतीं थीं | मसलन, हमारी सारी पुरानी फिल्मों के कर्नल साहब हमेशा बड़ी बड़ी मूंछे रखे और 'ब्लडी' ...'जोल्ली गुड ' ...'शाबाश जवान' और 'येस जेंटलमैन' जैसे घनघोर शब्द बोलते हुए पाए जाते थे | उनके घरों में एक भुस भरा शेर हमेशा ही पाया जाता था तथा दीवार पर एक तरफ सींग समेत हिरन का मूंह और दूसरी तरफ मरे हुए चीते पर बूट और दुनाली लिये उनकी फोटो, प्रदर्शित होती थी | किसी रहस्मयी कारण से, न जाने क्यों इन जांबाजों को देश भक्ति की फिल्मों के अलावा, लगभग हर फिल्म में बड़ा कम अक्ल सा ही दिखाया जाता था |हीरो या हीरो का दोस्त सारे आम इनको बेवकूफ बनाते थे और ये बेचारे बनते रहते थे |
फिल्म वालों की भूगोल थोड़ी कमज़ोर थी इसलिए सारे दक्षिण भारतीय सिर्फ मद्रासी कहलाये जाते थे और ऐसे में हर मद्रासी अय..याय..यो..अम्मा बोलते हुए ही नज़र आते थे | हर सिंधी पात्र 'वडी साईं'..'बाब्बा झूलेलाल' बोलता हुआ.. हर पारसी पात्र तुम को 'टुम' कहता हुआ ही दिखाया जाता था | यह और बात है, कि मेरे अपने अब तक के जीवन काल में मुझे ये अदभुत दर्शन फिल्मों के अलावा कहीं और देखने को नहीं मिले |
उन फिल्मों के सारे नौकरों के नाम, हमेशा रामू...रामदीन, दीनू काका या हरिया ही होते थे जो घर वालों को मालिक, मालकिन और बच्चों को छोटे बाबू या छोटे साहब ही कह के पुकारते थे| इन नौकरों को रिटेन करने की ज़रुरत नहीं होती थी और ये बड़े साहब के बचपन से लेकर छोटे साब के बुढ़ापे तक घर में ही बने रहते थे | इनकी तरक्की होती भी कभी देखी नहीं थी हमने | इसी तरह सारे चौकीदार नेपाली या पठान ही होते थे| नेपाली 'ऊई शाब जी' और पठान महाशय 'ओये खबीस की औलाद,'खोचे, बिरादर, बादाम खायीगा, पीसता खायीगा' बोलते हुए ही पाया जाता था| कुछ कलाकार हमेशा नौकर और कुछ कलाकार हमेशा मालिक बनने के लिये ही पैदा होते थे| कभी गलती से किसी डायरेक्टर ने इसमें भेद भाव कर दिया तो दर्शक गण खफा हो जाते थे और पिक्चर डूब जाती थी |
यहाँ तक कि, सिम्बालिक शाट्स भी एक जैसे ही होते थे |आप, गाने के बीच दो फूलों के मिलने को देख कर समझ सकते थे कि हीरो हिरोइन थोड़ा प्रायवेसी चाह रहे हैं | बाद के कुछ सालों में, इन फूलों की जगह चिड़िया के जोड़े और फिर और कुछ सालों बाद हिलती हुयी झाड़ियों ने ले ली थी |उन लल्लू डायरेक्टर्स को किसी ने समझाया नहीं कि ये सब समझने के लिये हमारी काबिल जनता को किसी सिम्बालिक शाट की ज़रुरत नहीं है भाई | हम तो कक्षा दो में ही समझ गये थे |
हमारी फिल्मों से यह भी पता चलता था कि हमारा मुल्क कितना संगीत प्रधान है |हर फिल्म में, दो रोमांस भरे, एक दो दर्द भरे, इक फ़कीर नुमा व एक आध किसी हास्य कलाकार द्वारा गाये गए गीत ज़रूर होते और इस प्रक्रिया में छेड़ छाड़ से भी फिल्मों के पिटने का डर रहता था | इन सभी गानों में कोरस में साथ निभाने के लिये खेतों में काम कर रहे नर नारियों के अलावा राह चलते लोग, बसों और ट्रेनों में बैठे बच्चे ,बूढ़े ,जवान सभी तत्पर रहते थे ,और सभी सुर ताल और नाच के स्टेप्स में पक्के होते थे | डाइरेक्टर भी काफी हाईजीन कांशियास होते थे और दो अच्छे गानों के बीच,एक ऐसा गाना ज़रूर रख देते थे की दर्शक गण शौचालय जाकर ख़ुद को हल्का कर सकें |
अमूमन हर दूसरी फिल्म में ही नासिर हुसैन टाईप कोई बुज़ुर्ग एक्टर ( जिनको हर फिल्म में हार्ट अटैक ज़रूर होता था ) अपनी पत्नी की फोटो के सामने खड़े होकर बोलता था 'आज तुम होती तो कितनी खुश होतीं' , या "जानती हो तुम्हारा श्याम लन्दन से वापस आ रहा है" | फिल्म में बाद में वही जनाब खड़े होकर बेटे को कोसते थे और कहते थे 'अच्छा हुआ, के तुम ये दिन देखने के पहले ही दुनिया से चली गयीं' |
उस ज़माने के बच्चे सिर्फ मेले में या नाव के डूबने से ही ग़ुम होते थे | उसी मेले में जिसको ये बच्चा मिलता था वो उसे कभी भी पोलिसे स्टेशन या मेले के सूचना केंद्र न ले जाकर जैक पाट की तरह सीधा अपने घर ही ले जाता था | बीच समंदर में नाव डूबने से भी हमारे सुपर बच्चे अक्सर किनारे पर पड़े पाए जाते थे |
उन दिनों फिल्मों में हीरो लोग अक्सर गाँव से शहर पलायन करते थे | गाँव से मेरा बांका छोरा गोरी के साथ एक दो गानों के बाद छोटे-छोटे बाल और चावल की मांड से खड़ी की गयी चोटी उठाये निकलता और शहर में आकर नाई की दूकान से जुल्फें लहराता हुआ बलम परदेसिया बनकर बाहर आता ...क्या टेक्नालजी थी भाई मानना पड़ेगा |
हीरोइनों को अठरा साल के ऊपर दिखाना भी पाप था | मज़े की बात यह भी थी, कि अठरा साल की लडकी की खांसती हुयी माँ का मेकप किसी सत्तर साला नारी से कम का न होता था | माताजी जितनी बुज़ुर्ग होंगी दर्शक उतने ज़्यादा इमोशनल होँगे| मेरी गणित के हिसाब से अगर तीस साल की उम्र में भी कोई माँ बनी है तो बा-मुश्किल तमाम सैंतालिस अड़तालीस साल की होंगी , मगर डायरेक्टरों की गणित मुझसे कुछ अलग थी | उनकी गणित वहाँ भी थोड़ी अलग होती थी जहाँ इक गबरू जवान हीरो का इक छह - सात साल का भैया- भैया कहता हुआ भाई दिखाया जाता था | मानना पड़ेगा कि बड़ी हिम्मत थी उस ज़माने के माँ बाप में |
उन डायरेक्टरों की, गणित के साथ साथ विज्ञान की नालेज भी कमाल की थी | मुझे याद है एक फिल्म मैं अजीत साहब (जो किसी विशेष कमजोरी के कारण अक्सर लायन को लोइन कह के संबोधित करते थे ) दारा सिंह को कुर्सी से बंधवा देते है और उनके हाथ में बिजली की इक नंगी तार पकड़ा दी जाती है |अजीत के इशारे पे उनका कोई माइकल इक स्विच को आन करता है | एक तरफ से होमी वाडिया की जानदार सिनामातोग्राफ़ी से उपजी हुयी बिजली लपा लप उस तार पर दौडती है तथा दारा सिंह की मुठ्ठियों पर आकर रुक जाती है (क्योंकि नादान मूर्ख विलेन, वो दारा सिंह है केश्टो मुखर्जी नहीं ) बहरहाल अजीत को अपनी मूर्खता समझ में आती है और वो अपने चम्पू को हुक्म देते हैं "वोल्टेज बढाओ" |अब वो आज्ञाकारी गुर्गा इक व्हील सरीखा गैजेट घुमाता है जिससे इस बार थोड़ी बड़ी चमक तार पर दौडती है और रुस्तमे हिंद को थोड़ा सा करंट लगता है | अजीत फिर बोलते हैं " वोल्टेज और बढ़ाओ "...गुर्गा, व्हील थोड़ा जोर से घुमाता है ...थोड़ी और बड़ी चमक और फाईनली दारा सिंह बेहोश ......
खैर, ज़्यादातर फिल्मों का अंत भी लगभग इक सा ही होता था |मसलन एकदम से सारे विलेन संगीतप्रेमी हों जाते थे और हीरो को बाँध कर हिरोइन से नाचने गाने की फरमाइश करने लगते थे | हीरोइन भी चटक मटक कपड़े पहन ( जो उसे न जाने कहाँ से मिल जाते थे ) धरती हिलाने वाले ऐसे नृत्य पेश करती थी कि आपको लगेगा कि ये सिर्फ नाचने के लिये ही पैदा हई है |
एक पतली सी मूंछ या कभी कभी दाढी या चश्मा लगाकर हीरो विलेन को खूब छकाता ...और वो नादान विलेन उसे पहचान भी नहीं पाता था | और तो और, पूरी फिल्म में इक से इक चालाकियां दिखाने के बाद विलेन आखिर में हीरो को गोली ना मारकर ,गैस चेंबर में डाल कर या टाईम बम्ब से उड़ाने की बेवकूफी भी कर दिखाते थे |अरे घामड़, दो रूपए की गोली के बदले हजारों रूपए का टाईम बम्ब..ऊपर से मकान और फर्नीचर का नुक्सान... पूअर फैनेंशियल नालेज .... खैर विलेन तो विलेन ...पैसा उसका बम्ब उसका...मैं कऊन खाम्खा |
उन दिनों की सामाजिक पिक्चरों के तो क्या कहने भाई वाह | हर सामाजिक पिक्चर में, एक क्रूर सास और इक दबाया कुचला अबोध ससुर होता था |ये ससुर अपनी तमाम जिंदगी और पूरी फिल्म में आँखे बन्द किये सास को सारे अनाप शनाप ज़ुल्म करने देता था और अंत में इकदम से, मूसली खाया हुआ गदाधारी भीम बन, एक ही थप्पड़ में पत्नी को चित्त कर देता था | मज़े की बात उसकी वो बिन लादेन जैसी घाघ पत्नी, एक ही झापड़ में सही भी हो जाती थी |
किसी भी यात्रा में हमारे हीरो साहब हमेशा ट्रेन या हवाई जहाज से खाली सूटकेस उठाये उतरते थे| कमाल यह था कि मेहनत से घबराने वाले ये हीरो किसी लड़ाई में दस- बारह गुंडों से कम पीटने में अपनी शान की गुस्ताखी समझते थे |मजाल है कि मेहनत करते हुए, गुंडों से लड़ते हुए उनके ब्रिल क्रीम से चिपके बाल यहाँ से वहाँ हो जाएँ या दूसरी तरफ बर्तन मांजती कपड़ा घिसती हिरोइन की लट कहीं टस से मस हो जाए| सुबह उठते समय भी साड्डी हिरोइन बिस्तरे से लाली पाउडर से पुती, झुमके बाली के साथ, चका चक प्रेस की हुयी साड़ी पहने हुए ही उतरती थी |
और हाँ, अपने इस हर अक्लमंद हीरो का एक बेवकूफ दोस्त ज़रूर होता था जिसका एक ही फ़र्ज़ होता था हमें अपनी उल जलूल हरकतों से प्रसन्न करना और हेरोइन की फेवरेट सखी को पटाना | प्रशाद स्वरुप एक आध गाने और आखिर की लड़ाई में एक आध घूंसे इनको भी दे दिए जाते थे |
हम भी, यह सब देख कर भाव विव्हल हो जाते थे |बार बार देखी हुयी फिल्मों को फिर देखते थे| बार बार उसी सीन पर रोते थे, सस्पेंस फिल्म दसवीं बार देख कर भी उसी एक जगह चौंकते थे| गाने रट जाते थे तो भी चित्रहार में वही गाना फिर देख कर झूमने लगते थे | उस ज़माने के समाचार पत्रों में फिल्मों के इश्तहार भी क्या होते थे वाह वाह" जनता की बेहद मांग पर," रहस्य रोमांच से भरपूर' , 'आपके निकट के छवि गृह में'... 'घटी दरों पर'..... 'गीत संगीत और रोमांस से लबरेज़'...... 'इमोशनल फैमली ड्रामा' ...'आईये पूरे परिवार के साथ देखिये' 'न आओगे तो पछताओगे' ...'मनोरंजर कर से मुक्त' इत्यादि.... इत्यादि |
हम, आज भी धरम पाहजी का कुत्ते कमीनों का खून पीना , शत्रु जी के सिगरेट के छल्ले के बीच से निकलता हुआ ' खामोश', देव साब की टूटी बत्तीसी, संजीव कुमार की तोंद, शम्मी के झटके , दादा मुनी का अभिनय ,दिलीप भाई की ट्रेजेडी , मीणा कुमारी के आंसू ,मधुबाला की मुस्कराहट ,हेमा की सुन्दरता , अमित भैया की आवाज़, ऋषी की जवानी, जया की सादगी, जीनत की अदा और और पिक्चर की कास्टिंग में सारे कलाकारों के नाम के बाद " एंड, प्राण " देखकर खुश हो जाते हैं |
लिखने को तो जनाब बहुत कुछ है, मगर कहाँ तक लिखेंगे | कुछ चीज़ें बदली हैं नये ज़माने के साथ, कुछ अब बदलेंगी और कुछ शायद न भी बदले, जैसे हमारी पोलिस का सब कुछ हो जाने के बाद ही आना |
हम भारतीयों का फिल्म प्रेम मगर हमेशा कायम रहेगा...और ऐसी की तैसी, उनका रहे चाहे न रहे अपुन का तो हमेशा रहेगाइच्च... ....दी एंड .......|
- योगेश शर्मा
अच्छा व्यंग्य बधाई
जवाब देंहटाएंआखिर चाचाजी जबलपुरिया जो हैं... रोचक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबिल्कुल हमारे दिल की बातें लिख दीं जी आपने, मज़ा आ गया पढ़कर। लेकिन इन सब विसंगतियों के बावजूद आज की फ़िल्मों के मुकाबले उस काल की फ़िल्में(वजह बेशक संगीत और हीरोईन हैं) हमें तो ज्यादा आकर्षित करती हैं, विशेषकर कामेडी फ़िल्में। शानदार व्यंग्य के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंAccha Likhte ho aur lekhan par pakat hai.
जवाब देंहटाएंCinema se hi M.P. se hi juda mera aalekh bhi is link par padhen-
http://srayyangar.blogspot.com/2010/06/cinema-those-days.htm
बहुत रोचक ढंग से बखिया उधेड़ दिया
जवाब देंहटाएंदीनू काका करैक्टर वाली कुछ फिल्में बता सकें तो कृतार्थ करें.
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