04 अक्टूबर 2010

'मैं तुमसे मुत्तासिर सही'


मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर  इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं

ऊंचाई यूं तुम्हारी, लुभाती मुझे बहुत है
लेकिन ज़मीन अपनी प्यारी मुझे बहुत है
तुम्हारे कद को छूने, उछाल भरते भरते
ऊंचाइयों से अपनी, गिर जाऊं ना कहीं

मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर  इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं

रिश्ता जिस्म से न मुझको तोड़ना है 
इस कदर न तुमसे ख़ुद को जोड़ना है
कि साए में तुम्हारे, परवान चढ़ते चढ़ते 
मेरे ही साए मुझसे खो जाएँ ना कहीं

मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर  इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं

ये जानता हूँ मैं, तुम हल निकाल लोगे
कितनी भी करूं कोशिश, तुम मुझको ढाल लोगे 
उस सांचे में मेरा दिल, होगा मगर नहीं
 बुत बन के बस तुम्हारा, रह जाऊं न कहीं

मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर  इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं



- योगेश शर्मा 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी4/10/10 7:47 pm

    बहुत ही सुन्दर ....

    मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
    क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें...
    अपनी टिप्पणी ज़रूर दें...
    http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html

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  2. उस सांचे में मेरा दिल, तो होगा कभी नहीं
    बस बुत तुम्हारा बनके, रह जाऊं न कहीं


    मन के द्वंद को बखूबी लिख दिया है ..अपना वजूद तो रहना ही चाहिए ...अच्छी अभिव्यक्ति

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  3. याद आए दिन मस्त मौजों के,
    जखम फिर से उनका हरा हो गया,
    दरिया मिला जब से समंदर से जाकर ,
    बड़ा तो हुआ, पर खरा हो गया ...

    अच्छी रचना, लिखते रहिये ...

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  4. मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर इतना भी नहीं ,
    कि तुम्हारा अक्स बनके, वजूद खो दूं कहीं

    किसी का होकर अपना अस्तित्व भी कायम रखने की चाह ...
    बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ...!

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  5. बेनामी5/10/10 11:32 pm

    मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष

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