मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं
ऊंचाई यूं तुम्हारी, लुभाती मुझे बहुत है
लेकिन ज़मीन अपनी प्यारी मुझे बहुत है
तुम्हारे कद को छूने, उछाल भरते भरते
ऊंचाइयों से अपनी, गिर जाऊं ना कहीं
मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं
रिश्ता जिस्म से न मुझको तोड़ना है
इस कदर न तुमसे ख़ुद को जोड़ना है
कि साए में तुम्हारे, परवान चढ़ते चढ़ते
मेरे ही साए मुझसे खो जाएँ ना कहीं
मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं
ये जानता हूँ मैं, तुम हल निकाल लोगे
कितनी भी करूं कोशिश, तुम मुझको ढाल लोगे
उस सांचे में मेरा दिल, होगा मगर नहीं
बुत बन के बस तुम्हारा, रह जाऊं न कहीं
मैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर इतना भी नहीं
कि अक्स बन तुम्हारा, वजूद खो दूं कहीं
बहुत ही सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर इस बार ....
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http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html
उस सांचे में मेरा दिल, तो होगा कभी नहीं
जवाब देंहटाएंबस बुत तुम्हारा बनके, रह जाऊं न कहीं
मन के द्वंद को बखूबी लिख दिया है ..अपना वजूद तो रहना ही चाहिए ...अच्छी अभिव्यक्ति
याद आए दिन मस्त मौजों के,
जवाब देंहटाएंजखम फिर से उनका हरा हो गया,
दरिया मिला जब से समंदर से जाकर ,
बड़ा तो हुआ, पर खरा हो गया ...
अच्छी रचना, लिखते रहिये ...
बहुत उम्दा रचना.
जवाब देंहटाएंमैं तुमसे मुत्तासिर सही, पर इतना भी नहीं ,
जवाब देंहटाएंकि तुम्हारा अक्स बनके, वजूद खो दूं कहीं
किसी का होकर अपना अस्तित्व भी कायम रखने की चाह ...
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ...!
मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष
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