14 अप्रैल 2010

"शाख़"




कोंपलें उस पर उगीं, शाख़ जो वीरान थी,
 कैसे अजूबा ये हुआ शाख खुद हैरान थी,

फूटा कोई पत्ता न था, उम्र कितनी गुज़र गयी,
सैकड़ों बीते थे मौसम, बहार न छूकर गयी,

सांझ की बेला में जैसे रौशनी सी छा गयी,
कंपकपाती टहनियों में फिर जवानी आ गयी,

लहलहाती, झूमती, मदमस्त होकर डोलती,
आना ही था बहार को, यूं पेड़ से हो बोलती,

वो कभी बंजर न थी, इसका उसे एहसास था,
  सैकड़ों  कलियाँ छुपी दामन में ये विश्वास था,

लद गयी फूलों से कितने, शाख वो गुलज़ार है,
रंगों में उनके रंग अब, जीने को फ़िर तैयार है |
 

- योगेश शर्मा

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