मन के घोड़े कभी न थकते,
न होते बोझिल, ना हाँफते,
नहीं झुलसते कभी धूप में,
ये ठण्ड से नहीं कांपते,
इन पर यादों की कसे लगाम,
आते पल और गुज़रे कल,
बस मैं, और मेरे ये घोड़े,
जो सरपट दौड़े जाते हैं,
इस दुनिया के भीतर ही,
दूजी दुनिया दिखलाते हैं
न होते बोझिल, ना हाँफते,
नहीं झुलसते कभी धूप में,
ये ठण्ड से नहीं कांपते,
इन पर यादों की कसे लगाम,
अपनी आँखों को बंद किये,
जाने अनजाने सपनों को,
उड़ता हूँ, मैं संग लिए,
न, उम्र का ही रहता एहसास,
जितना ही जाता हूँ ऊपर,
उतना, खुद के आ जाता पास,
न देख रहा कुछ और, मैं अब,
न किसी को दिखता हूँ, अब मैं,
न बोल रहा, न कोई सुन रहा,
अब कोई है, तो हूँ बस मैं,
आते पल और गुज़रे कल,
दोनों ही इक हो जाते हैं,
क्या सच है और ख्वाब हैं क्या,
सब मुझमे ही खो जाते हैं,
बस मैं, और मेरे ये घोड़े,
जो सरपट दौड़े जाते हैं,
इस दुनिया के भीतर ही,
दूजी दुनिया दिखलाते हैं
- योगेश शर्मा
बस मैं, और मेरे ये घोड़े,
जवाब देंहटाएंजो सरपट दौड़े जाते हैं,
इस दुनिया के भीतर ही,
दूजी दुनिया दिखलाते हैं
BAHUT KHUB
SHEKHAR KUMAWAT
http://kavyawani.blogspot.com/
"अपने में मस्त है कविता..."
जवाब देंहटाएंबस मैं, और मेरे ये घोड़े,
जवाब देंहटाएंजो सरपट दौड़े जाते हैं,
इस दुनिया के भीतर ही,
दूजी दुनिया दिखलाते हैं
-क्या बात है..बेहतरीन!