02 मई 2010

'वो कुम्हार'




झुकी कमर लिए,गर्दन टेढ़ी किये,
दिखी एक काया,
कांपते हाथों से,जिसे मिटटी को,
प्यालों का आकार देते पाया,

गौर से देखने पर,
मैंने,जब उन प्यालों को,
थोड़ा टेढ़ा पाया,
तो ख़ुद को रोक ना पाया,
ठिठोली से पूछ बैठा,
"बाबा,इतनी उम्र हो गयी,
अब तक यह काम न आया,
सालों से कर रहे,
फिर भी टेढ़ा बनाया",

बूढा हंस के बोला,
"बेटा,टेढ़ा बनाते-बनाते,
कभी-कभी सीधा भी बन जाता है,
फिर भी,भगवान से अच्छा है,
जो एक ही गलती,रोज़ दोहराता है,
सदियों से,वैसे ही इंसान
बनाए चला जाता है,

ये प्याला टेढ़ा सही
फिर भी प्यास बुझाता है,
किसी काम तो आता है
पर  इंसान को,
ये टेढ़ी कमर कभी नहीं दिखी 
बस,टेढ़ा प्याला ही
नज़र आता है"



- योगेश शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. कुम्हार की बात में दम है....बहुत अच्छी रचना....

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  2. काफी अच्छी और गहन विचार से भरी कविता है योगेश जी. सोचने को मजबूर करती है.

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