14 जुलाई 2010

'कस के मुझपे वार करो'



हूँ गुनाहगार  तो क्यों  न  संगसार  करो ,
उठाओ पत्थर और कस के मुझपे वार करो

 तुम्हारा कहना है ,दलीलें मेरी हैं बेबुनियाद
मैं कर रहा हूँ कबसे, तुम्हारा वक्त बर्बाद
इनकी बेबाकी से अंदर तक डर चुके हो तुम
कहना बाकी है पर फैसला कर चुके हो तुम
लहू निकालो चलो, कपड़े तार तार करों
मेरे गुनाह के फ़ोडों को ज़ार ज़ार करो
उठाओ पत्थर, कस के मुझपे वार करो

में  कभी तुमसे, तुम्हारे  गुनाह  ना  पूछूंगा 
न  मुफ़लिसी न अपनों का वास्ता दूंगा
न  कहूंगा तुम्हें मुंसिफ  बनाया किसने है ?
मुझे भी उसने गढ़ा, तुमको  बनाया  जिसने है
खैर छोड़ो, इन बातों को दरकिनार  करो
बड़े शौक़  से इन्साफ का क़ारोबार करो
उठाओ पत्थर, कस के मुझपे वार करो

मैं जानता हूँ, ख़ुदा का है ये दरबार नहीं
है ग़र गुनाह, तो सज़ा मिलनी है दो बार  नहीं
मिली सज़ा जो यहाँ तो ख़ुदा बख़्शेगा मुझको
हूँ बेक़सूर तो फ़िर जन्नत ही देगा मुझको
शुरू एहसान का जल्दी से कारोबार करो
जिया गुमनाम सा पर मौत शानदार करो
उठाओ पत्थर और कस के मुझपे वार करो

हूँ गुनाहगार तो क्यों न संगसार करो
उठाओ पत्थर और कस के मुझपे वार करो। 



- योगेश शर्मा


12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार

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  2. मांगने से कभी मौत भी नहीं मिलती, स्वीकारने से कभी सज़ा नहीं मिलती.

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  3. bahut hi bhadiya rachna.....isi tarah likhte rahiye aur hamari shubhkamnayein paate rahiye

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  4. बहुत खूब लिखा है आपने, आभार स्वीकार करें।

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  5. बहुत ही जानदार रचना बन पड़ी है. आपको बधाई.

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  6. अजीब सी बेचारगी है कविता में ...मानते हो गुनाहगार तो वार करो ..मगर पहला पत्थर कौन मारे ...अपने दामन में तो झांके ...

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  7. में कभी तुमसे, तुम्हारे गुनाह ना पूछूंगा
    न मुफ़लिसी का, न अपनों का वास्ता दूंगा
    न कहूंगा तुम्हें मुंसिफ बनाया किसने है ?
    मुझे उसी ने गढ़ा , तुमको बनाया जिसने है
    चलो छोड़ो इन बातों को दरकिनार करो
    उठाओ पत्थर, कस के मुझपे वार करो

    जबरदस्त रचना है ... आवेश का संचार कर देती है धमनियों में ....

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