दर्द ज़माने को दिखने में
कितने माहिर होते हैं
कभी होंठों से झर जाते हैं
कभी आँख से ज़ाहिर होते हैं
चेहरे पर झूठी मुस्कानों की
परतों से झांकते रहते हैं
कभी माथे की शिकनों से ये
बाहर को ताकते रहते हैं
हम एक भुलावे में रहते हैं
दर्द ये दिल में कैद पड़े
और हैं अपने राज़ सभी
अपने अन्दर महफूज़ बड़े
होंठो को हाथों से ढकते हैं
पलकों को कस कर मींचते हैं
अश्कों को कर के ज़ब्त ,अपने
ग़म को और भी सींचते हैं
इस फ़सल- ऐ- ग़म में हमदम
बस दर्द के फल ही आते हैं
जाने अनजाने में, हमसे
अपनों में बंट ही जाते हैं
अन्दर की खामोशी को
चीख के सब कह जाने दें
कभी ये अच्छा होता है
हम अश्कों को बह जाने दें |
- योगेश शर्मा
अन्दर की खामोशी को
जवाब देंहटाएंचीख के सब कह जाने दें
कभी ये अच्छा होता है
हम अश्कों को बह जाने दें |
बहुत सही बात कही है ....दर्द निकाल दिया जाये तो अंदर डेरा डाल कर नहीं बैठा रहता ..अच्छी रचना
कभी ये अच्छा होता है
जवाब देंहटाएंहम अश्कों को बह जाने दें |
बहुत सुन्दर रचना .. सन्देश देती सी
अन्दर की खामोशी को
जवाब देंहटाएंचीख के सब कह जाने दें
कभी ये अच्छा होता है
हम अश्कों को बह जाने दें |
in panktio ne kavia me jaan dal di........bahut badhia
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना मंगलवार 23 -11-2010
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
अन्दर की खामोशी को
जवाब देंहटाएंचीख के सब कह जाने दें
कभी ये अच्छा होता है
हम अश्कों को बह जाने दें ...
सच . ... दर्द को बाहर नियालने से कौन रोक सकता है ... अपने आप ही निकल आता है ..
अच्छा लिखा है आपने ...
सच दर्द का अश्कों में बह जाना ही अच्छा होता है...
जवाब देंहटाएंअन्दर की खामोशी को
जवाब देंहटाएंचीख के सब कह जाने दें
कभी ये अच्छा होता है
हम अश्कों को बह जाने दें ...
कभी -कभी ये भी अच्छा होता है ...!