18 अक्तूबर 2011

'ज़रा ये भी सिखा'




मेरी रातों के अंधेरों में चमकने वाले
तू कभी दिन के उजाले में बहारें भी दिखा
चल दिया मेरी धड़कनों को तरन्नुम देकर   
बिन तेरे कैसे जिया जाए ज़रा ये भी सिखा

दिल की हसरत बड़ी ग़ुमनाम रही हैं अब तक
तेरी चाहत मेरा ईनाम रही है अब तक
अपने जज़्बात को जाने क्यों कफ़स में है रखा 

उनको तन्हाई के पर्दों में छिपा रखा था
हमने ज़ख्मों को हमराज़ बना रखा था
वक्त आया है, उन्हें अब दें ज़माने को दिखा

ख़ुदा को नेमतों का जब शुक्रिया कर लेता हूँ
कोशिशें हाथों को पढ़ने की भी कर लेता हूँ
ढूँढता हूँ अगर मिल जाए कहीं तू भी लिखा

मेरी रातों के अंधेरों में चमकने वाले
कभी तू दिन के उजाले में बहारें भी दिखा |




- योगेश शर्मा

8 टिप्‍पणियां:

  1. खुदा को नेमतों का जब शुक्रिया कर लेता हूँ
    कोशिशें हाथों को पढ़ने की भी कर लेता हूँ
    ढूँढता हूँ अगर मिल जाए कहीं तू भी लिखा

    वाह...वाह..बेजोड़ रचना..बधाई स्वीकारें

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब...शानदार प्रस्तुती।

    जवाब देंहटाएं
  3. खुदा को नेमतों का जब शुक्रिया कर लेता हूँ कोशिशें हाथों को पढ़ने की भी कर लेता हूँ ढूँढता हूँ अगर मिल जाए कहीं तू भी लिखा
    बिन तेरे कैसे जिया जाए ज़रा ये भी सिखा
    वाह वाह बहुत खूब मज़ा आ गया पढ़कर ....बहुत ही भावनात्मक प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. दिल की हसरत बड़ी गुमनाम रही हैं अब तक
    तेरी चाहत मेरा ईनाम रही हैं अब तक
    अपने जज़्बात को जाने क्यों कफ़स में है रखा
    हमें तो यह अच्छा लगा , मुबारक हो

    जवाब देंहटाएं
  5. मेरी रातों के अंधेरों में चमकने वाले
    कभी तू दिन के उजाले में बहारें भी दिखा

    बहुत खूब मस्त....

    जवाब देंहटाएं
  6. भावनाओं को बखूबी लिखा है ..
    बहुत सुन्दर भावो से भरी पोस्ट......शानदार |

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति , बधाई.



    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा .

    जवाब देंहटाएं

Comments please