यूं तो बरसों पहले ये कबूल चुके हो
किया था प्यार मुझसे, मुमताज़ से भी बढ़ कर
मुकम्मल मुझे किया था इंसानियत से गिर कर
कब से मैं चुप खड़ा हूँ, अब सब्र नहीं है,
दामन में मेरे सिर्फ़ दो ही कब्र नहीं हैं,
दफ़न हैं हाथ कितने यहाँ जिस्म के बिना,
बरसों से बार बार पल पल उन्हें गिना,
गढ़ा जिन्होंने मुझको, शिद्दत से था बनाया,
मेरे हरेक नक्श पर, अपना लहू बहाया,
ताबीर से मिलाया तेरे ख्वाब को जिन्होंने
कटवाया दिया था कैसे उन हाथों को भला तूने ,
मुझ पर लिखी हैं ग़ज़लें गाये जाते हैं तराने
आकर निहारते हैं मुझे सैकड़ों दीवाने,
रोज़ खाई जाती है मेरी हज़ारों कसमें,
रखने को यादगार, होती तस्वीरों की रस्में,
है सब से एक गुजारिश मुझे तन्हा छोड़ दो,
दरारों में जी रहा हूँ मुझे पूरा तोड़ दो,
हूँ सिर्फ संगमरमर मुझमें है दिल नहीं ,
बनूँ प्यार की निशानी मैं इस काबिल नहीं
शाहजहाँ, तुम्हें याद है या भूल चुके हो
यूं तो बरसों पहले ये कबूल चुके हो...
laajawaab
जवाब देंहटाएंयोगेश जी ,
जवाब देंहटाएंवाकई में शब्दों और भावों का नयनाभिराम संयोजन प्रस्तुत किया है
वाकई ताज की खूबसूरती के पीछे न जाने कितने अरमानों का गला घुंटा होगा, कितने हाथों को उनके जिस्म छोड़ने को मजबूर किया होगा...मालूम नहीं वो खून की होली कैसी रही होगी..
जवाब देंहटाएंआज हम ताज को देख कर खुश होते हैं लेकिन उसके पीछे बर्बाद हुई ज़िंदगियाँ किसे याद है...
शुकिया आपने याद दिलाया...
बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंउस दर्द को उस जुल्म को क्यों भूल जाते है लोग्
बेहतरीन भावपूर्ण रचना!
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
nice
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