अक्सर, मन में मेरे यह विचार आये ,
कि, मनुष्य कहाँ से आये और किधर को जाए ?
जीव जीवन से पहले और मृत्यु के बाद क्या है ?
क्या आत्मा वोही पुरानी, चोला ही बस नया है ?
ईश्वर भला है कौन ,है कहाँ पर ,है कैसा ?
रौशनी है, कि छाया है, या फिर इंसानों जैसा ?
बुजुर्गों से सुना है, किताबों में पढ़ा है,
वो समय से पुराना और दूरियों से बड़ा है,
धरती जीव अम्बर उसने जो है बनाया ,
पर ख़ुद बना है जिससे, वो स्रोत कहाँ से आया?
पहले पल से पहले, जब वो ही हुआ था करता ,
हर तरफ कुछ न था तो, अकेला क्या था करता ?
इस तर्क वितर्क के जंगल में, यूँ ही भटके जाऊं ,
न तथ्य कुछ मिलें,न उसे मिथ्या ही मान पाऊं ,
ख़ुद ही से प्रश्न करता ,उत्तर स्वयं ही गढ़ता ,
प्रमाण ढूंढ़ने को जाने हूँ क्या क्या पढ़ता ,
ये उत्तर कहाँ से पाऊँ, कैसे ये रहस्य जानूं ?
प्रमाण से परखूँ इश्वर या श्रद्धा को ईश्वर मानूं ???
- योगेश शर्मा
gahan chintan se janmi....sundar rachana.
जवाब देंहटाएंBadhai!
यह प्रश्न अन सुलझा है। लेकिन दर्शनों ने इस का उत्तर देने का प्रयास किया है। इस प्रश्न पर आप ने मानव मन की उलझन को सही रीति से प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंवैसे श्रद्धा के बिना ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं।
बहुत सुंदर कविता। पसंद आई।
जवाब देंहटाएंयह पहेली है...जिस दिन सुलझ जाए उस दिन धर्म की दुकानें बंद हो जाए.....
जवाब देंहटाएं..........फ़िलहाल ये पहेलियाँ.....
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विलुप्त होती... .....नानी-दादी की पहेलियाँ.........परिणाम..... ( लड्डू बोलता है....इंजीनियर के दिल से....)
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