मन के भीतर छिपा कहीं,
इक छोटा सा बच्चा है,
झूठ ,कपट के बीच भी जो,
अब तक थोड़ा अच्छा है,
बादल में दीवारों पर,
जो अब भी चेहरे ढूँढता है,
आईने में बिचका कर मूंह,
खुद पर आज भी हंसता है,
जिसका चंचल मन अब भी,
गुब्बारों पे ललचाता है,
परछाईं से कभी लड़ता है,
कभी उससे दौड़ लगाता है,
बारिश के पानी में, जम कर,
आज भी नाचना चाहता है,
तारों को जो चाँद के संग,
लड़ियों में बाँधना चाहता है,
इसको अच्छा लगता है,
अनजानों को दोस्त बनाना,
ढेर ढेर सी बातें करना,
खेलना, हंसना, शोर मचाना,
फूल, रंग ,जादू , तारे, और
परियों कि बातें सुनना,
झूठ मूठ के किस्से कहना,
बात बात पे रूठते रहना,
जाने क्यों रोक के रखता हूँ,
में इसको बाहर आने से,
पर्दों के पीछे रखता हूँ,
और डरता हूँ दिखलाने से,
कभी कभी लेकिन फिर भी ,
ये सबको दिख ही जाता है,
मैं अब भी कहीं से सच्चा हूँ,
मुझको याद दिलाता है
मन के भीतर छुपा हुआ,
ये जो छोटा बच्चा है,
बड़ा कहीं न हो जाए ,
बस इस बात से डरता है
मन के भीतर छुपा हुआ,
जवाब देंहटाएंये जो छोटा बच्चा है,
कहीं बड़ा न हो जाए ,
बस इस बात से डरता है
-निदा फाज़ली साहेब भी अपने शेर में यही कह गये.
अरे, उनका शेर बताना तो भूल ही गये:
जवाब देंहटाएंमेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा,
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है।
समीर जी, जान कर अच्छा लगा कि ये डर सिर्फ मेरा नहीं है | फाज़ली साहब जैसे लोग भी इस बच्चे से जुदा नहीं होना चाहते| ज़रूर हम जैसे तमाम और भी होँगे ...बस कहते या मानते न हों | वैसे एक अच्छे शेर से रू -बरू कराने का शुक्रिया- योगेश शर्मा
जवाब देंहटाएंबच्चे जैसा भोला मन ही तो सब कह जाता है ...सुन्दर चित्रित किया है |पिछली पोस्ट्स भी पसन्द आईं |
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंhttp://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat