भूल चुका हूँ, गेहूं के या सरसों के,
पानी की उम्मीद में साँसे रूख गयी हैं,
बादल तकते तकते नज़रें सूख गयी हैं,
ये सिलसिला निरंतर बरसों से चल रहा है
ठंडे पड़े हैं चूल्हे बस पेट जल रहा है
भूख प्यास आपस में लड़ते सो जाते हैं
बारिश के बासी सपनों में फ़िर खो जाते हैं
दुआ मांगने को हाथों में जान नहीं है,
अब तो बरसो आँखे भी हैरान हुई हैं
छांव सी इक, लगता है सर पे आई है,
थोड़ी थोड़ी हवा चली, क्या पुरवाई है?
ऊपर कुछ काला सा है,बदरी तो नहीं है?
टपका है गालों पे कुछ,आंसू तो नहीं है,
नहीं नहीं ख्वाब नहीं, ये तो बारिश है!
आस में जिसकी ज़िंदा था, ये वो बारिश है,
जीने की उम्मीद जो दे,ये वो बारिश है,
कुछ करने की चाहत दे, ये वो बारिश है,
बूँद बूँद से शुरू हुई,अब बढ़ने लगी है,
खेतों में थी, अब आँगन में पड़ने लगी है,
दुःख झेले थे जो भी, सारे भूल गया हूँ,
सावन के संगीत में, सब कुछ भूल गया हूँ,
लगता है, जीवन की ये पहली बारिश है,
आस में जिसकी जिंदा था, ये वो बारिश है
- योगेश शर्मा
लगता है, जीवन की ये पहली बारिश है,
जवाब देंहटाएंआस में जिसकी जिंदा था, ये वो बारिश है
बहुत सुंदर रचना।
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
जवाब देंहटाएंजनदुनिया का आभार | संजय जी आप मादेस्ट हो रहे हैं ,आप ख़ुद भी बहुत अच्छा लिखते हैं |
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कविता ,मनुष्य की जीजिविषा को दर्शाती; पोज़िटिव अंत वाली....।
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