25 अप्रैल 2010

"कशमकश"




वो पहला ख़त मोहब्बत का मैंने खूब पाया था ,
 महबूबा ने दुश्मन की किताबों में छुपाया था,

 उमर भर हसरतें मंजिल की वैसे भी कभी ना की,
ये  सदमें और हैं कि रास्तों पे प्यार आया था,

किसे अपना कहूं या रब, किसे अब समझूं बेगाना,
कहीं माझी ने पलटी नाव, कहीं दुश्मन ने बचाया था,

 लगा ना डर मुझे मरने से यूं तो आज से पहले ,
ख़याल ऐ ख़ुदकुशी लेकिन कभी का छोड़ आया था,

दुआ थी मौत की माँगी मगर रूह कश्मकश में है ,
कि मरते वक्त जीने पे वो दिल क्यों हार आया था |


- योगेश शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी ही सोच में था मैं, बची जब आख़री साँसे,
    मरते मरते जीने पे, ये दिल क्यों हार आया था
    बहुत बढ़िया रचना ...

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  2. pehle hi sher ne dil jeeta thodi lay ki dikkat aati hai....us par thoda sa dhyan de....

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  3. पद्म सिंह जी और दिलीप भाई आप दोनों का बहुत धन्यवाद सलाह देने का | बहुत ही सकारात्मक , उचित और मेरे हित की बातें हैं | विडंबना यही है कि लखनऊ का होते हुए भी मेरा हाथ इन सब में बहुत तंग है | कई बार याद भी किया मगर रिटेन नहीं रह पाता और सोच का फ्लो मर जाता है || फिर सोचता हूँ कि अगर गुलज़ार साहब को जब कोई लय बद्द कर सकता है तो मुझे भी कोई मिल ही जाएगा | मगर जोक्स अपार्ट ...अब डंडा पड़ा है तो हिंदी युग्म पर ज़रूर जाऊंगा क्योंकी मैं ख़ुद अपनी कवितायें गा नहीं पाता| और कमियाँ जितनी दूर हो सके उतना ही अच्छा है | आप दोनों का बहुत बहुत आभार | इन कमियों के बावजूद मुझे पढ़ना मत छोड़ियेगा |

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