09 मई 2010

'कैसे दीवाने'



साए साए रहे, साए साए पले,
हाथ थामा धूप का तो चांदनी से जले,

टूटे न ख्वाब इसलिए डरते उजालों से रहे,
आशियाँ आकर के उजड़ा इन चरागों के तले,

खो गए कभी राह में धूल के मानिंद ही
एक झोंके सा उड़े, कभी रुक गए, कभी फिर चले,

उम्र के मोहताज कब हैं ये उबाले खून के 
छीन लो चाहे जवानी छीनोगे कैसे वलवले 

रौशनी काफ़ी है ख़ुद की कोई सूरज से कहो
जब भी जी चाहे उगे, जब भी हो मर्जी ढले



- योगेश शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर , खासकर ये पंक्तियाँ
    हमें रौशनी काफी है अपनी,
    कोई सूरज से कहे,
    जब भी जी चाहे उगे,

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  2. हमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।

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