10 मई 2010

एक गुन्चा, एक पेड़




साए तले दरख़्त के, इक नया पौधा खिला
खुश हुआ दरख़्त, चलो एक साथी तो मिला !

परवान पौधा चढ़ा, उस पेड़ के ही साए में,
आँधियों में लिपटा कभी, सर्दियों में सिमटा उसमे,

धूप झुलसाती तो, पत्तियां पेड़ की मरहम बनती
छाँव उसकी, गुन्चे के खेल का आँगन बनती,


धीरे धीरे एक दिन, पौधा बड़ा जब हो गया,
लगा सोचने, पेड़ से नुक्सान कितना हो गया ?


टहनियों से कमबख्त की, ऊंचाई मेरी रुक गयी
कैसे पनपूं, शाखों को नज़र इसकी लग गयी,

और कद थोड़ा बढ़ा , तो ख़ुद पे ही इतराने लगा ,
धीरे धीरे वो नासमझ, पेड़ से कतराने लगा,

बस घूरता था पेड़ को आँखें लिए जलती हुई
पेड़ सूखा सोच सोच, आखिर कहाँ गलती हुई

पेड़ मायूस पौधे से, पौधा पेड़ से रंजूर है ,
फासले न के बराबर, पर दिल कितने दूर हैं

अब पेड़ तन्हाई में खुश, पौधा है ख़ुद में मगन,
रह गयी बस टीस इक, थोड़ी कसक थोड़ी चुभन |

- योगेश शर्मा

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही प्यारी रचना. वैसे पेड़ों के नीचे दूसरे पौधे नहीं पनप पाते.

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  2. oh bada marm chipa hai is rachna me...mata pita aur santaan ke rishte samjhati ye kavita...waah javaab nahi aapka...

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  3. शुक्रिया सुब्रमनियन जी | वैसे चाँद भी ज़मीं पर नहीं आता, नज़र में चिराग नहीं जलते ,चेहरे पर गुलाब नहीं खिलते आस्तीन में सांप नहीं पलते | यह सिम्बोलिक बात है और कविता और साइंस में यही तो फर्क है..आपकी तारीफ का आभार| यूं ही स्नेह बनाये रखें

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  4. बड़े भाई बहुत ही शानदार प्रस्तुति ....बहुत ही सुन्दर ..और जीवन के सत्य के करीब रचना है ..आपकी यह कविता आपकी गहरी सोच को व्यक्त करती है ....इसकी तारीफ़ तो मुमकिन नहीं बस मैं इतना ही कहूँगा शब्दों के समंदर से बस मोती ही खोज कर लाये हो ....बहुत दिनों बाद मेरी पसंद की रचना मिली ...और वो भी आपकी कलम से ...शुक्रिया ..बस इसी तरह लिखते रहे {इस कविता हर पंक्ति खुद में लाजवाब }रिश्तो की कड़वी सच्चाई है ये रचना

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  5. aur haa ....'सुब्रमनियन' jee ki tippani ke sandarbh me aapne jo kaha main ..aapki hi baat ka samrathan karta hoon

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  6. सच्चाई को उकेरती बहुत ही खूबसूरत ...एवं प्रभावशाली रचना

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  7. राजेंद्र भाई यूं ही हौसला बढ़ाते रहें .............

    "मुफलिसी,रुसवाई और तन्हाई भी मंज़ूर है

    दोस्तों का साथ है तो मंजिले कब दूर हैं"

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  8. पेड़ मायूस पौधे से, पौधा पेड़ से रंजूर है ,फासले न के बराबर, पर दिल कितने दूर हैं
    अब पेड़ तन्हाई में खुश, पौधा है ख़ुद में मगन,रह गयी बस टीस इक, थोड़ी कसक थोड़ी चुभन |


    खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..

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