लिये आस्तीं में खंजर ,ढूँढू ख़ुदा को आज
उसे क्यों न ख़त्म कर दूं ,अपने ही हाथों आज
इन हौसलों पे अपने, हैरां नहीं हूँ मैं
दीवानगी पे बिलकुल, पशेमां नहीं हूँ मैं
शिकवा भी नहीं कोई, न उससे हूँ नाराज
उसे अपनी इबादत का दिखा दूं ये अंदाज़
लिये आस्तीं में खंजर ,ढूँढू ख़ुदा को आज
ये ख़ुदा तो रोज़ ही तिल तिल के मर रहा है
मंदिर सा फुंक रहा,कभी मस्जिद सा जल रहा है
नीलाम किया जाता चौराहों पे सरे आम
सड़कों पे कौड़ियों में, बिकता है सुबह शाम
थका हूँ देख उसको यूँ मरते रोज़ रोज़
तकलीफ का करूं अब किस्सा ही ख़तम आज
लिये आस्तीं में खंजर ,ढूँढू ख़ुदा को आज
पर मारने से पहले ये पूछना है उससे
जो बांटनी थी नफरत तो प्यार क्यों दिया था
साझा ही था बनाना, शैतान जो सभी का
हर इक को जुदा उनका भगवान् क्यों दिया था
कर दें ये पशो-पेश, क्यों न ख़तम सारी आज
शैतान को ही पहना दें, अब जहां का ताज
लिये आस्तीं में खंजर ,ढूँढू ख़ुदा को आज
हर ओर सिर्फ होगा, जब शैतान का निज़ाम
रुक जाएगा ख़ुदा के नाम, होता क़त्ल -ऐ -आम
ख़ुदा भी मुझको शायद शुक्रिया कहेगा
ढूँढेगा नयी दुनिया,कहीं और जा रहेगा
बदलेगा शायद रोज की, दहशत का फिर रिवाज़
होगा ख़त्म, खून और वहशत का ये मिजाज़
लिये आस्तीं में खंजर ,ढूँढू ख़ुदा को आज
उसे ख़त्म क्यों न करदूं, अपने ही हाथों आज
- योगेश शर्मा
लिये आस्तीं में खंजर ,ढूँढू ख़ुदा को आज
जवाब देंहटाएंउसे क्यों न ख़त्म करदूं , अपने ही हाथों आज
हम्म!!एक नजरिया!
बहुत आक्रोश है मन में जो कविता में उतर आया है....अब खुदा को भी????????????
जवाब देंहटाएंजो बांटनी थी नफरत, तो प्यार क्यों दिया था साझा ही था बनाना, शैतान जो सभी का
जवाब देंहटाएंवाह ..
लिए खंजर आस्तीन में ढूंढता खुदा को आज ...
निराशा और आक्रोश को खूबी से अभिव्यक्त करती अलग तरह की कविता ...
kavita padhkar achchha lagaa...keep blogging
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