बहुत दिनों से मुझ गरीब ब्लॉगर के अन्दर एक भावनात्मक कीड़ा कुलबुला रहा है|यह कुलबुलाना शब्द शायद सही अभिव्यक्ति न हो इसलिए मेरे ख़याल से ठांठे मारना ज्यादा उपयुक्त होगा|
ये भावनात्मक कीड़ा शक,असमंजस, कसमसाहट, वेदना ,आक्रोश और इर्ष्या के मिले जुले लुक और फील वाला है। ये एक ब्लॉग लेखक के मन रूपी क्यारी में तभी पनपता है जब उसकी लेखन के पौधे को प्रशंसा या टिप्पणियों की खाद सप्लाई या तो न हो रही हो या बहुत कम हो रही हो |
खैर, इस कीड़े ने आज कुलबुलाने से आगे बढ़ मुझे अपना दिव्य स्वरुप दिखाया और फिर अपना डंक उठा लिया |डंक उठाते ही मेट्रिक्स फिल्म के विलेन की तरह इसके एक शरीर से कई शरीर निकल आये और मुझे सुना सुना कर आपस में अजीब अजीब सी बातें करने लगे | यह बातें कभी सवाल, कभी जवाब, कभी ताने, कभी डांट और कभी मास्टर जी का उपदेश प्रतीत होती थीं |
मैं भी इनसे वार्तालाप करने लग गया और धीरे धीरे एक मछली बाज़ार का सा माहौल उत्पन्न हो गया |यह समझना भी मुश्किल हो गया था कि उसमे मैं कौन या वो कीड़ा कौन , कौन क्या बोल रहा है,क्या सवाल है , क्या जवाब है और क्या बहस है |
संक्षेप में ये बातें कुछ यूं थीं :-
- पहले भी कौन सी आती थीं
- बड़ा सिंपल लिखते हो गुरु , एक बार पढ़ते ही समझ में आ जाता है। थोड़ा कोम्प्लेक्स लिखो यार, अच्छे अच्छे बड़े बड़े घुमावदार शब्द लाओ, बहुत सुपर फीशियल हो
- सुपर फीशियल मतलब....
- अब इसकी हिन्दी नहीं मालूम ...शायद 'सतही' हो, पर मतलब ये है थोड़ा अन्दर घुसो,शब्द कोष उठाओ, थोड़ी मेहनत करो, पाठकों को कंफ्यूस करो..उनसे खेलो ..उन्हें खुजलाओ....उनको तैराओ
- जैसे कि??
- अरे पपलू ....जैसे कि तुम अपनी शैली में लिखते हो " मैंने तुम्हें देखा, तुमने मुझे देखा " अरे 'ये देखा' बड़ा सतही शब्द है यार, लिखो "मेरी आँखों से तरंगे निकली और वायु मंडल, भू मंडल , सौर मंडल को चीरती हई तुम्हारी आँखों के कमंडल में किसी कोने में ठिठुरती हई स्थापित होने ही वाली थी कि तुमने दुर्वासा की तरह अपने उस कमंडल से अपनी तरंगों के छींटे अपने नयन रूपी हाथ से मेरे शरीर रूपी ब्रह्माण्ड,मेरे रोम रोम,मेरी आत्मा पर दे मारे" अबे ऐसा कुछ लिखो,हुंह! देखा!!!' ब्लडी सुपरफीशियल एनीमल...
- और हाँ ,अगर प्रेम कहानियां लिखो तो अपने रोमांस को पेड़ - पौधों, चाँद, तारों से अलग किसी आज की पुष्ट्भूमि पर खड़ा करो जैसे कि ..
- जैसे कि ??
- जैसे कि,पिज़्ज़ा हट, माल, मल्टी प्लेक्स या फिर कोई मुगलाई रेस्टोरेंट...अब ज़रा कान इधर करो और सुनो ये सीन और फिर ऐसे ही रियाज़ करो -"वो रेस्टोरेंट में मेरे सामने बैठी थी, उसके हाथ पांव भी सामने ही थे|उसकी कोमल उँगलियों में चिकन की मसाला लगी मांसल देह थरथरा रही थी| उसके नेल पालिश किये हुए नाखून जब जब उस मुर्गे के बदन में घुसते तो वो मुर्गा गुदगुदी और दर्द के मिले जुले भाव अपने चेहरे पर लाकर, माहौल में और गर्मी पैदा करने लगता |इस बीच वो कुछ सोच के थोड़ा मुस्कुराई, शायद खाने के बाद की आइसक्रीम के बारे में |उसकी लिपस्टिक के बादलों के अन्दर से उसके बर्फीले पहाड़ जैसे दाँत चमके, और फिर उन दांतों में फंसा वो धनिये का पत्ता यूं झलका, जैसे चोटी से बर्फ पिघली हो और नीचे की हरियाली दिख रही हो, यूं लगा जैसे कोई शरारती बच्चा,किवाड़ पकड़ कर अन्दर झाँक रहा हो ...जैसे...जैसे"...
- योगेश शर्मा
aapki charcha kal ke charcha manch k liye select ki gayi hai..kripya niche ke link par aaye.
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com
abhar
इस कीड़े ने तो गज़ब लिखवा डाला..
जवाब देंहटाएं.अरे पोपट ...जो सबका है ..मतलब वो किसी का नहीं .... - क्या सटीक बात कही है...
"मेरी आँखों से तरंगे निकली और वायु मंडल, भू मंडल , सौर मंडल को चीरती हई तुम्हारी आँखों के कमंडल में किसी कोने में ठिठुरती हई स्थापित होने ही वाली थी कि तुमने दुर्वासा की तरह अपने उस कमंडल से अपनी तरंगों के छींटे अपने नयन रूपी हाथ से मेरे शरीर रूपी ब्रह्माण्ड,मेरे रोम रोम,मेरी आत्मा पर दे मारे"....
वाह क्या कविता बनेगी....
और यह वर्णन तो....
उसके, नेल पालिश किये हुए नाखून जब जब उस मुर्गे के बदन में घुसते तो वो मुर्गा गुदगुदी और दर्द के मिले जुले भाव अपने चेहरे पर लाकर, माहौल में और गर्मी पैदा करने लगता |
:):):)
बहुत बढ़िया
इतने घनघोर बखान के बाद चक्कर तो मुझे भी आ रहे हैं. :) हा हा!!
जवाब देंहटाएंउर्दू घुसेड़ो....ग़ज़ल...शेर..नज़्म
जवाब देंहटाएं- ये सब कुछ नहीं ..शुद्ध हिंदी कविता
- कविता का ज़माना नहीं रहा ....अब लेख लिखो ...
- व्यंग लिखो.....
- नहीं ट्रेजेडी ...पीड़ा, पीड़ा ...पेन, पेन
तो लिख ही दीजिये अगली बार कोई ग़ज़ल ....शेर ....नज़्म .....!!
्बहुत सुन्दर लिखा है बस ऐसे ही लिखते रहिये ……………टिप्पणियां मिलती रहेंगी।
जवाब देंहटाएंSabd ka jaal hai. Bahut hi badhiya: Nidhish
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