12 अगस्त 2010

'कल और आज'



कल तक जो पूछते थे, क्या सुर, क्या है साज़,
मुझे  हुनर मौसिखी  के  सिखला रहे हैं आज ,

जिनको गुमान था कि, वो अक्स हैं मेरा ही   
आइना वो मुझको दिखला रहे हैं आज
  
मेरे लहू से अपने, ज़ख्मों  को करने मरहम
मेरे बदन पे ज़ख्म, दिये जा रहे हैं आज

कभी मुझसे पूछते थे, पता अपनी मंजिलों का  
मुझे मेरे घर का रस्ता,  बतला रहे हैं आज

या खेल वक्त का है, या होश में नहीं वो  
मेरे ही फ़लसफ़े मुझे, समझा रहे हैं आज


- योगेश शर्मा

5 टिप्‍पणियां:

  1. लाजवाब ग़ज़ल है ... एक एक शेर जैसे एक एक अनमोल मोती ..

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  2. कल तक जो पूछते थे, क्या सुर, क्या है साज़,
    मुझे हुनर मौसिखी के सिखला रहे हैं आज ,

    जिनको गुमान था कि, वो अक्स हैं मेरा ही
    आइना वो मुझको दिखला रहे हैं आ

    sir, randomly landed here, but want to share url with frnds too.
    bahut sundar gazal, khaas kar shuru k ye do aur antim para.

    जवाब देंहटाएं

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