जब से मचा बवंडर,
तूफ़ान छाया जबसे,
मल्लाह ने था छोड़ा,
किनारे पे उसको तबसे,
बेजान सी ज़मीं पर,
औँधे वो जा गिरी थी,
मुहं रेत में छिपाये,
असहाय सी पड़ी थी,
उम्मीद एक ही थी,
मांझी पलट के आये,
बाहों का दे सहारा,
सागर में फिर ले जाये,
मौंजे उफन रही थीं,
तूफान भी थमा न,
थकी वो देख रस्ता,
मांझी का कुछ पता न,
तूफान बीतने का,
तूफान बीतने का,
इंतज़ार करती कब तक,
बहने को ही बनी थी,
रहती रुकी वो कब तक,
करी दोस्ती हवा से,
छोड़े सभी किनारे,
ख़ुद चल पडी वो नैया,
तूफान के सहारे,
कस कर के मुठ्ठीयों को,
कस कर के मुठ्ठीयों को,
पतवार फिर बनायी,
चमकती बिजलियों ने,
उसे राह ख़ुद दिखाई,
न खौफ डूबने का,
न लहरों का उसको डर है,
किनारों की क्या है परवाह,
मंजिल ही जब सफ़र है
बढ़िया जोशीली अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ...यही हौसला होना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंपिछले मंगलवार को आप चर्चा मंच पर नहीं आये ?