मैंने बचपन से, यादों में संभाला है जिसे
बंद पलकों में, खुली आँखों में पाला है जिसे
दूर अम्बर पे , घटाओं में, बसर मेरा है
वो जो टुकड़ा है बादल का, वो घर मेरा है
स्याह रातों में, बर्फ जैसे चमकता है जो
ज़र्द पतझड़ में, बहारों सा महकता है जो
ज़र्द पतझड़ में, बहारों सा महकता है जो
हर एक लम्हा, हर शाम -ओ- सहर मेरा है
वो जो टुकड़ा है बादल का, वो घर मेरा है
हर नयी सुबह, सदा दे कर उठाता है मुझे
थपकियाँ देके थकी रातों में सुलाता है मुझे
है मेरी रूह और जाने जिगर मेरा है
हर नयी सुबह, सदा दे कर उठाता है मुझे
थपकियाँ देके थकी रातों में सुलाता है मुझे
है मेरी रूह और जाने जिगर मेरा है
वो जो टुकड़ा है बादल का, वो घर मेरा है
न मैं रहता हूँ वहां, और न गया हूँ कभी
पर मेरे दोस्त,सभी अपने, बसते हैं वहीं
वो मंजिल नहीं, बस हमसफ़र मेरा है
वो जो टुकड़ा है बादल का, वो घर मेरा है
वो जो टुकड़ा है बादल का, वो घर मेरा है|
- योगेश शर्मा
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
बहुत सुंदर कविता है वाकई....बहुत खूब
जवाब देंहटाएंकितनी ग़ज़ब की कविता लिखी है आपने....कमाल कर दिया...
जवाब देंहटाएंbahut gajab ka lihte hai aap...
जवाब देंहटाएंumdaah rachna ke liye badhai...
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