जीवन में कई हादसे ऐसे होते हैं जो गुज़रते समय तो बड़ी तकलीफ़ देते हैं परन्तु बाद में जब कभी भी ये याद आते हैं तो बड़ी हंसी आती है | अपनी ऐसी ही कुछ खट्टी तीखी यादों से आपका परिचय मैंने पहले भी करवाया है , अपने संस्मरणों के ज़रिये और आज भी इरादा कुछ ऐसा ही है|
भाई के दुखी होने के पीछे हमारी पिटने - पिटाने की पुरानी खानदानी परम्परा थी जिसकी ज़िम्मेदारी पिताजी के असमय देहांत के बाद मेरे नाज़ुक कन्धों पे आ गयी थी | इसका निर्वाह मैंने पहले पिताजी से जम कर पिटके और बाद में अपने छह साल छोटे भाई अमित को पीट कर खूब किया था | हालांकी समय के साथ साथ ( जिसमे मेरे भाई का गबरू जवान होना शामिल है )और अक्ल आने के बाद हम दोनों द्वारा इस परम्परा को संपूर्ण तिलांजली दे दी गयी है | खैर, उन दिनों छोटा भाई इस लिये दुखी था कि कसरत कि वजह से मेरे मुक्कों में काफी वज़न आ गया था और थप्पड़ों में आवाज़ के साथ साथ अच्छा खासा करंट भी दौड़ने लगा था अर्थात दोनों ही ज़्यादा असरदार हो गये थे |
कुछ महीनों की मेहनत के बाद जब मुझे ये लगने लगा कि मेरे बदन पर मतलब भर का मांस आ गया है तो मैंने 'हजरतगंज' की एक फुटपाथी दूकान से कुछ बिना आस्तीनों की टी शर्ट खरीद लीं | इन्हें पहन कर में अपने स्कूटर पर घूमा करता था और ख़ुद को सन्नी देयोल या रैम्बो से कम नहीं समझता था | ये और बात है कि आज मैं जब अपनी उस ज़माने कि तसवीरें देखता हूँ तो मुझे उनमें अपनी जगह कोई सन्नी - रेम्बो नहीं बल्कि एक मरियल और चुसा हुआ डेड़ पसली का लड़का ही दिखता है | शादी के बाद, ऐसे ही एक और दर्दनाक सत्य का उदघाटन मेरी पत्नी ने किया कि उस समय की लडकियां इस तरह के कपड़े पहनने वालों को छिछोरा और स्कूटर पर घूमने वाले लड़कों को बहुत डाउन मार्केट समझतीं थीं | उनकी नज़रों में आने के लिये लड़के के पास एक अदद मोटर साइकल का होना बहुत ज़रूरी था | हाय रे!! जवानी और हाय जवानी की गलत फहमियाँ |
मेरा 'स्वामी' नाम का मित्र था जो एक नामी तैराक हुआ करता था | उसके इतना भर कहने पर कि तैरने से बदन में काफी निखार आ जाता है मैंने भी तैरने की ठान ली | अब चूंकि तैरना आता नहीं था सो उसको सिखाने की ज़िम्मेदारी भी श्री स्वामी के सर मढ़ दी गयी थी | कोई और उपयुक्त जगह ना देख कर ये तय पाया गया कि करीब के गोमती घाट पर ही रोज़ सुबह इस कार्यावाही को अंजाम दिया जाएगा | मैं रोज़, स्वामी, अपने छोटे भाई और अपने दो परम मित्रों कमल (उर्फ़ काका )और राजेश के साथ रोज़ सुबह ५ बजे गोमती घाट पहुँच जाता जहां हम सभी तैरने का अभ्यास करते थे | एक हफ्ते में हमें कुछ कुछ तैरना आने लगा था और हम किनारे पर ही गले गले तक पाने में तैरने से लगे थे |
हमने ट्रक का एक सेकण्ड हैण्ड ट्यूब भी खरीद लिया था जिसमे हवा भर ली गयी थी | इस ट्यूब को हम रोज़ सुबह हम अपने साथ ले जाना कभी नहीं भूलते थे| काका या मेरे स्कूटर पर हम तीन दोस्त और मेरा भाई गोमती घाट पहुँचते थे | हम सब के साथ हमारा प्रिय ट्यूब भी होता था जिस को पकड़ने की ज़िम्मेदारी सबसे पीछे बैठे हुए लड़के की होती थी | सबसे छोटा होने की वजह से अमित को ये मजदूरी थोप दी गयी थी | उसे स्कूटर पर पीछे स्टेपनी के साथ में फंसा कर उल्टी ओर को मुंह कर के बैठाया जाता था ताकि वो उस गजकाय ट्यूब को पकड़ सके | स्कूटर चालक भी बिना एक्सीडेंट किये स्कूटर चला सके और बीच में बैठे हुए हम दोस्त सड़क पे आती जाती सुंदरियों को बिना अवरोध और छोटे भाई की नज़रों से बच के बिना लज्जित हुए देख सकें |
इस विशाल काय ट्यूब में आये दिन पंचर होते रहते थे जिसे जुडवाने में हमारी साप्ताहिक जेब खर्च का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता था | तैरने के बाद टायर पर बैठ कर गोमती भ्रमण भी होता था | हम दो तीन मित्र ट्यूब पे बैठते और हमारे खिवय्या स्वामी जी, जो कि अकेले पूर्ण तैराक थे , हमारे ट्यूब को धक्का दे हमें गोमती के चक्कर लगवाते | काका, हालांकि ख़ुद को शुरू से ही अव्वल दर्जे का तैराक मानते थे पर हमने उन्हें पूर्ण तैराक मानने का जोखिम कभी नहीं उठाया | बहरहाल, गोमती के लहरों, भैंसों के झुण्ड, कूड़े, कचरे , मल और काई से जूझते हुए हम नाना प्रकार की जल क्रीडाएं और टुच्ची अठखेलियाँ करते और ख़ुद को धन्य धन्य पाते | हमारी किस्मत अच्छी थी जो कभी उस जल विहार के दौरान ट्यूब श्री पंचर नहीं हुए वरना बीच गोमती में और भरी जवानी में में हमारा कल्याण हो गया होता | अकेला स्वामी भला कितनों को बचा पाता |
अब आपको उस घटना विशेष के ओर लिये चलता हूँ जिसके लिये ये महाभारती भूमिका बांधी थी | मैं एक ही महीने में, तैरने में इतना पारंगत हो गया था कि गोमती का दूसरा किनारा छू आता था | तैरने के बाद ट्यूब से खेलने का स्थान भी अब, दोस्तों के कन्धों पे चढ़ के पानी में छलांग लगाने ने ले लिया था | एक मित्र लगभग सीने तक के पाने में खड़ा होता था और बाकी उसके कंधे पे चढ़ के उस तरफ डाईव मारते थे जिस ओर पानी गहरा होता था | राजेश हम सब में सब से तगड़ा था परन्तु तैरने में सबसे कमज़ोर था | इसी वजह से वो अक्सर किनारे पर ही खड़ा हो कर अपने हाथ पैर मारा करता था | अक्सर उसके ही कंधे पे चढ़ कर ये सब करतब किये जाते थे |
एक दिन मैं अपने यूनीवर्सिटी के दोस्तों के बीच अपने तैराकी कौशल की डींगें हांकने में लगा हुआ था | मेरे साथ कुछ चेले छाप जूनिअर छात्र भी खड़े होकर ' सत्य वचन बाबा' वाले भाव लिये मेरी बातें सुन रहे थे | कुछ देर बाद उनमें से एक ने विनम्र निवेदन किया " सर ( हमारे यहाँ उस ज़माने में नर सीनिअर्स को सर कह कर ही संबोधित किया जाता था ) हमको भी तैरना नहीं आता है, क्या हमको आप सिखा देंगे ? "हमने शोले के धर्मेन्द्र वाले अंदाज़ में कहा "क्यों नहीं ( बसन्ती ) तुमको तो हम दो दिन में ही सिखा देंगे...कल सुबह घाट पर शार्प ५ बजे पहुँच जाना" | चेले ने फिर पूछा "सर स्विम्मिंग कास्ट्यूम भी लाना होगा क्या ?हमने उसे कुछ लज्जित करते हुए भाव में कहा "नहीं बेटा उसकी कोई ज़रुरत नहीं पर हाँ चड्डी का इलास्टिक ज़रूर टाईट हो वरना कहीं पानी में स्लिप हो कर बह गयी तो ऐसे ही बाहर आना पड़ेगा...हा हा हा" | उस छात्र ने एक आदर्श जूनियर की तरह शर्माते हुए हमारा वो घटिया जोक ग्रहण किया और चुपचाप वहाँ से खिसक लिया |
अगले दिन साढ़े पांच बजे वो 'सारी सर लेट हो गया' वाले भाव लिये घाट पर पहुँच गया | हमने उसे पहले तो डांटा और फिर कमर भर पानी में हाथ घुमाने का आदेश देकर, रोज़ का क्रम तोड़ते हुए पहले ही डाईव मारने का इरादा कर बैठे | इस में शायद कहीं, अपने शागिर्द पर उसकी पहली ही क्लास की शुरूआत में जबरदस्त इम्प्रेशन मारने का इरादा था | पलक झपकते ही मैं राजेश के कंधे पर चढ़ गया और आनन् फानन में एक डाईव मार दी | पता नहीं राजेश कुछ घूम गया , दिशा का अनुमान गलत हो गया या किस्मत फूटनी थी कि जिस जगह मैं सर के बल नीचे पहुँचा वहाँ पानी कम था और मेरा सर एक पत्थर से जा टकराया | चोट गहरी थी परन्तु पानी के अन्दर चोट का एहसास नहीं हुआ , बस इतना लगा कि कुछ सख्त सा सर पर छुआ है | जैसे ही मगर मैं उठ कर खड़ा हुआ कि मुझे देखते ही मेरा ताज़ा ताज़ा बना शागिर्द बेहोश हो पानी में गिर पड़ा | कारण यह था कि मेरे सर से खून का फौवारा फूट रहा था जो बह कर पूरे चेहरे और बदन को लहू लुहान कर रहा था |
घाट पे खड़े हुए लोग यह देखते ही दौड़े | एक ने उस बेहोश छात्र को संभाला दूसरे ने मेरे सर पर तौलिया रखा | काका ने स्कूटर स्टार्ट किया और राजेश ने मुझे सहारा दे कर स्कूटर में बैठाया | ख़ुद मुझे वो एक हाथ से पकड़ कर पीछे बैठ गया दूसरे हाथ से उसने मेरे सर पर तौलिया रखा हुआ था खून के बहाव को रोकने के लिये |स्कूटर चल पड़ा सिविल अस्पताल की ओर | क्या नज़ारा था सुबह के छह बजे चड्डी पहने तीन जवान हवा से बाते करते हुए स्कूटर पे चले जा रहे हैं और सड़क पे चलती हई जनता मुड़ मुड़ के देख रही है| कुछ विस्मित हो रहे थे , कुछ हंस रहे थे और कुछ बुज़ुर्ग से लोग 'क्या ज़माना आ गया है' वाले भाव से देख रहे थे |
अस्पताल पहुँचने पर भी कुछ ऐसा ही स्वागत हुआ | गनीमत थी कि काका ने अपना पर्स स्कूटर की डिकी में डाल लिया था वरना और शर्मिंदगी होती | खैर, इलाज चालू हुआ और सर पर पूरे नौ टाँके लगे | एक घंटे में छुट्टी दे दी गयी थी मगर लौटते लौटते पूरे नौ बज गये थे और सड़क पर भीड़ बढ़ चुकी थी | उस अधनंगी हालात में भीड़ के नयन बांणों, चुभते वाक्यों और हंसी के आघातों को झेलते हुए हम घर पहुंचे |
छोटा भाई हमारे कपड़े लत्ते लेकर पहले ही घर पहुँच चुका था| मां को मसाला लगा कर खबर देने के काम को भली भाँती अंजाम दे कर वो अपने स्कूल चला गया था | मां, मेरे इंतज़ार में दफ्तर को काफी लेट भी हो चुकीं थी और चिंतित भी बहुत थीं| उनसे मिलकर पहले तो खूब डांट पड़ी फिर गरम गरम नाश्ता भी मिला जिसकी उस वक्त सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी |
जो भी हो, मेरी उस्तादी का वो आख़री दिन था | उस दिन के बाद मेरा शागिर्द फिर कभी तैरने की क्लास में नहीं आया| अगर यूनिवर्सिटी में कहीं वो कहीं भी दिख जाता था तो मैं उससे कन्नी काट लेता था | बहुत दिनों तक मुझे बाकी यूनिवर्सिटी के दोस्तों का चेहरा देख कर भी यही लगता था कि उन सबको इस हादसे का पता चल गया है और सब मन ही मन मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं |
अब भी जब कभी, मैं या मेरे दोस्त, उस वाकये को याद करते हैं तो हंसी से लोट पोट हो जाते हैं और गिर गिर पड़ते हैं | तैरना कुछ दिनों के अंतराल के बाद दुबारा शुरू हो गया था क्योंकी अभी कुछ और हादसे अभी होने बाकी थे जो और भी ज़्यादा गंभीर थे | उन का जिक्र फिर कभी होगा ....आज बस इतना ही |
ये बात सन सत्तासी अठ्ठासी की है जो कि वो दिन थे जब में ताज़ा ताज़ा जवान हुआ था | उन दिनों 'सिल्वेस्टर स्टेलोन'और 'आर्नल्ड' की फिल्मों ने लखनऊ में धूम मचा रखी थी | उनसे प्रेरित हो कर, अपनी कमरिया को कमर का दर्जा देने और पसलियों पे कुछ मांस चढ़ाने की लालसा से, मैंने एक छोटे से जिम में दाखिला ले लिया था | उस जिम में रोज़ शाम को दो घंटा जम कर कसरत होती, वजन उठाया जाता और फिर जिम के बड़े बड़े आइनों में अलग अलग पोस में,टेड़े मेड़े मुंह बिचका कर बदन फुलाने की कुछ कामयाब और कुछ नाकाम कोशिशें होतीं |
इस कसरत से मेरी मां और मेरा छोटा भाई काफी दुखी थे | मां के दुखी होने का प्रमुख कारण ये था कि मुझे कसरत के बाद बहुत ज़्यादा भूख लगती थी और मैं राक्षशों की तरह कई जनों का खाना अकेले खा जाता था फिर थोड़ी ही देर में दोबारा भूख भूख चिल्लाता था| मां सरकारी नौकरी में थीं और सुबह से शाम खटने के बाद मेरी भूख की वजह से उन दिनों अक्सर रसोई में ही पायीं जाने लगी थीं |
कुछ महीनों की मेहनत के बाद जब मुझे ये लगने लगा कि मेरे बदन पर मतलब भर का मांस आ गया है तो मैंने 'हजरतगंज' की एक फुटपाथी दूकान से कुछ बिना आस्तीनों की टी शर्ट खरीद लीं | इन्हें पहन कर में अपने स्कूटर पर घूमा करता था और ख़ुद को सन्नी देयोल या रैम्बो से कम नहीं समझता था | ये और बात है कि आज मैं जब अपनी उस ज़माने कि तसवीरें देखता हूँ तो मुझे उनमें अपनी जगह कोई सन्नी - रेम्बो नहीं बल्कि एक मरियल और चुसा हुआ डेड़ पसली का लड़का ही दिखता है | शादी के बाद, ऐसे ही एक और दर्दनाक सत्य का उदघाटन मेरी पत्नी ने किया कि उस समय की लडकियां इस तरह के कपड़े पहनने वालों को छिछोरा और स्कूटर पर घूमने वाले लड़कों को बहुत डाउन मार्केट समझतीं थीं | उनकी नज़रों में आने के लिये लड़के के पास एक अदद मोटर साइकल का होना बहुत ज़रूरी था | हाय रे!! जवानी और हाय जवानी की गलत फहमियाँ |
मेरा 'स्वामी' नाम का मित्र था जो एक नामी तैराक हुआ करता था | उसके इतना भर कहने पर कि तैरने से बदन में काफी निखार आ जाता है मैंने भी तैरने की ठान ली | अब चूंकि तैरना आता नहीं था सो उसको सिखाने की ज़िम्मेदारी भी श्री स्वामी के सर मढ़ दी गयी थी | कोई और उपयुक्त जगह ना देख कर ये तय पाया गया कि करीब के गोमती घाट पर ही रोज़ सुबह इस कार्यावाही को अंजाम दिया जाएगा | मैं रोज़, स्वामी, अपने छोटे भाई और अपने दो परम मित्रों कमल (उर्फ़ काका )और राजेश के साथ रोज़ सुबह ५ बजे गोमती घाट पहुँच जाता जहां हम सभी तैरने का अभ्यास करते थे | एक हफ्ते में हमें कुछ कुछ तैरना आने लगा था और हम किनारे पर ही गले गले तक पाने में तैरने से लगे थे |
हमने ट्रक का एक सेकण्ड हैण्ड ट्यूब भी खरीद लिया था जिसमे हवा भर ली गयी थी | इस ट्यूब को हम रोज़ सुबह हम अपने साथ ले जाना कभी नहीं भूलते थे| काका या मेरे स्कूटर पर हम तीन दोस्त और मेरा भाई गोमती घाट पहुँचते थे | हम सब के साथ हमारा प्रिय ट्यूब भी होता था जिस को पकड़ने की ज़िम्मेदारी सबसे पीछे बैठे हुए लड़के की होती थी | सबसे छोटा होने की वजह से अमित को ये मजदूरी थोप दी गयी थी | उसे स्कूटर पर पीछे स्टेपनी के साथ में फंसा कर उल्टी ओर को मुंह कर के बैठाया जाता था ताकि वो उस गजकाय ट्यूब को पकड़ सके | स्कूटर चालक भी बिना एक्सीडेंट किये स्कूटर चला सके और बीच में बैठे हुए हम दोस्त सड़क पे आती जाती सुंदरियों को बिना अवरोध और छोटे भाई की नज़रों से बच के बिना लज्जित हुए देख सकें |
इस विशाल काय ट्यूब में आये दिन पंचर होते रहते थे जिसे जुडवाने में हमारी साप्ताहिक जेब खर्च का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता था | तैरने के बाद टायर पर बैठ कर गोमती भ्रमण भी होता था | हम दो तीन मित्र ट्यूब पे बैठते और हमारे खिवय्या स्वामी जी, जो कि अकेले पूर्ण तैराक थे , हमारे ट्यूब को धक्का दे हमें गोमती के चक्कर लगवाते | काका, हालांकि ख़ुद को शुरू से ही अव्वल दर्जे का तैराक मानते थे पर हमने उन्हें पूर्ण तैराक मानने का जोखिम कभी नहीं उठाया | बहरहाल, गोमती के लहरों, भैंसों के झुण्ड, कूड़े, कचरे , मल और काई से जूझते हुए हम नाना प्रकार की जल क्रीडाएं और टुच्ची अठखेलियाँ करते और ख़ुद को धन्य धन्य पाते | हमारी किस्मत अच्छी थी जो कभी उस जल विहार के दौरान ट्यूब श्री पंचर नहीं हुए वरना बीच गोमती में और भरी जवानी में में हमारा कल्याण हो गया होता | अकेला स्वामी भला कितनों को बचा पाता |
अब आपको उस घटना विशेष के ओर लिये चलता हूँ जिसके लिये ये महाभारती भूमिका बांधी थी | मैं एक ही महीने में, तैरने में इतना पारंगत हो गया था कि गोमती का दूसरा किनारा छू आता था | तैरने के बाद ट्यूब से खेलने का स्थान भी अब, दोस्तों के कन्धों पे चढ़ के पानी में छलांग लगाने ने ले लिया था | एक मित्र लगभग सीने तक के पाने में खड़ा होता था और बाकी उसके कंधे पे चढ़ के उस तरफ डाईव मारते थे जिस ओर पानी गहरा होता था | राजेश हम सब में सब से तगड़ा था परन्तु तैरने में सबसे कमज़ोर था | इसी वजह से वो अक्सर किनारे पर ही खड़ा हो कर अपने हाथ पैर मारा करता था | अक्सर उसके ही कंधे पे चढ़ कर ये सब करतब किये जाते थे |
एक दिन मैं अपने यूनीवर्सिटी के दोस्तों के बीच अपने तैराकी कौशल की डींगें हांकने में लगा हुआ था | मेरे साथ कुछ चेले छाप जूनिअर छात्र भी खड़े होकर ' सत्य वचन बाबा' वाले भाव लिये मेरी बातें सुन रहे थे | कुछ देर बाद उनमें से एक ने विनम्र निवेदन किया " सर ( हमारे यहाँ उस ज़माने में नर सीनिअर्स को सर कह कर ही संबोधित किया जाता था ) हमको भी तैरना नहीं आता है, क्या हमको आप सिखा देंगे ? "हमने शोले के धर्मेन्द्र वाले अंदाज़ में कहा "क्यों नहीं ( बसन्ती ) तुमको तो हम दो दिन में ही सिखा देंगे...कल सुबह घाट पर शार्प ५ बजे पहुँच जाना" | चेले ने फिर पूछा "सर स्विम्मिंग कास्ट्यूम भी लाना होगा क्या ?हमने उसे कुछ लज्जित करते हुए भाव में कहा "नहीं बेटा उसकी कोई ज़रुरत नहीं पर हाँ चड्डी का इलास्टिक ज़रूर टाईट हो वरना कहीं पानी में स्लिप हो कर बह गयी तो ऐसे ही बाहर आना पड़ेगा...हा हा हा" | उस छात्र ने एक आदर्श जूनियर की तरह शर्माते हुए हमारा वो घटिया जोक ग्रहण किया और चुपचाप वहाँ से खिसक लिया |
अगले दिन साढ़े पांच बजे वो 'सारी सर लेट हो गया' वाले भाव लिये घाट पर पहुँच गया | हमने उसे पहले तो डांटा और फिर कमर भर पानी में हाथ घुमाने का आदेश देकर, रोज़ का क्रम तोड़ते हुए पहले ही डाईव मारने का इरादा कर बैठे | इस में शायद कहीं, अपने शागिर्द पर उसकी पहली ही क्लास की शुरूआत में जबरदस्त इम्प्रेशन मारने का इरादा था | पलक झपकते ही मैं राजेश के कंधे पर चढ़ गया और आनन् फानन में एक डाईव मार दी | पता नहीं राजेश कुछ घूम गया , दिशा का अनुमान गलत हो गया या किस्मत फूटनी थी कि जिस जगह मैं सर के बल नीचे पहुँचा वहाँ पानी कम था और मेरा सर एक पत्थर से जा टकराया | चोट गहरी थी परन्तु पानी के अन्दर चोट का एहसास नहीं हुआ , बस इतना लगा कि कुछ सख्त सा सर पर छुआ है | जैसे ही मगर मैं उठ कर खड़ा हुआ कि मुझे देखते ही मेरा ताज़ा ताज़ा बना शागिर्द बेहोश हो पानी में गिर पड़ा | कारण यह था कि मेरे सर से खून का फौवारा फूट रहा था जो बह कर पूरे चेहरे और बदन को लहू लुहान कर रहा था |
घाट पे खड़े हुए लोग यह देखते ही दौड़े | एक ने उस बेहोश छात्र को संभाला दूसरे ने मेरे सर पर तौलिया रखा | काका ने स्कूटर स्टार्ट किया और राजेश ने मुझे सहारा दे कर स्कूटर में बैठाया | ख़ुद मुझे वो एक हाथ से पकड़ कर पीछे बैठ गया दूसरे हाथ से उसने मेरे सर पर तौलिया रखा हुआ था खून के बहाव को रोकने के लिये |स्कूटर चल पड़ा सिविल अस्पताल की ओर | क्या नज़ारा था सुबह के छह बजे चड्डी पहने तीन जवान हवा से बाते करते हुए स्कूटर पे चले जा रहे हैं और सड़क पे चलती हई जनता मुड़ मुड़ के देख रही है| कुछ विस्मित हो रहे थे , कुछ हंस रहे थे और कुछ बुज़ुर्ग से लोग 'क्या ज़माना आ गया है' वाले भाव से देख रहे थे |
अस्पताल पहुँचने पर भी कुछ ऐसा ही स्वागत हुआ | गनीमत थी कि काका ने अपना पर्स स्कूटर की डिकी में डाल लिया था वरना और शर्मिंदगी होती | खैर, इलाज चालू हुआ और सर पर पूरे नौ टाँके लगे | एक घंटे में छुट्टी दे दी गयी थी मगर लौटते लौटते पूरे नौ बज गये थे और सड़क पर भीड़ बढ़ चुकी थी | उस अधनंगी हालात में भीड़ के नयन बांणों, चुभते वाक्यों और हंसी के आघातों को झेलते हुए हम घर पहुंचे |
छोटा भाई हमारे कपड़े लत्ते लेकर पहले ही घर पहुँच चुका था| मां को मसाला लगा कर खबर देने के काम को भली भाँती अंजाम दे कर वो अपने स्कूल चला गया था | मां, मेरे इंतज़ार में दफ्तर को काफी लेट भी हो चुकीं थी और चिंतित भी बहुत थीं| उनसे मिलकर पहले तो खूब डांट पड़ी फिर गरम गरम नाश्ता भी मिला जिसकी उस वक्त सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी |
जो भी हो, मेरी उस्तादी का वो आख़री दिन था | उस दिन के बाद मेरा शागिर्द फिर कभी तैरने की क्लास में नहीं आया| अगर यूनिवर्सिटी में कहीं वो कहीं भी दिख जाता था तो मैं उससे कन्नी काट लेता था | बहुत दिनों तक मुझे बाकी यूनिवर्सिटी के दोस्तों का चेहरा देख कर भी यही लगता था कि उन सबको इस हादसे का पता चल गया है और सब मन ही मन मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं |
अब भी जब कभी, मैं या मेरे दोस्त, उस वाकये को याद करते हैं तो हंसी से लोट पोट हो जाते हैं और गिर गिर पड़ते हैं | तैरना कुछ दिनों के अंतराल के बाद दुबारा शुरू हो गया था क्योंकी अभी कुछ और हादसे अभी होने बाकी थे जो और भी ज़्यादा गंभीर थे | उन का जिक्र फिर कभी होगा ....आज बस इतना ही |
संस्मरण साझा करने के लिये आभार। ये संस्मरण हमे बहुत कुछ सिखाते हैं। आगे इन्तजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण साझा करने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ, क्षमा चाहूँगा,
जवाब देंहटाएंअच्छा रहा ये संस्मरण
जवाब देंहटाएंBahut hi badhiya lekin marmik Satya hai.
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