09 जून 2011

'क्या पढ़ते हो तुम'



अपनी आँखों में सवालात से गढ़ते हो तुम
मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम

मुझसे पूछो मैं खुद ही बता दूंगा तुमको
छुपा हूँ सबसे मगर अपना पता दूंगा तुमको
वो भी कह दूंगा जो पूछते डरते हो तुम
मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम

जाने क्यों लगता है तुम मुझको समझ पाओगे
जो न कह पाऊँगा तुम वो भी जान जाओगे
एक सुकूं मिलता है जब मेरी तरफ बढ़ते हो तुम
मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम

एक डर है कि मुझको समझने के बाद
मुझसे तुम शायद कतराने न लगो
मेरी हस्ती, मेरे ज़ेहन, मेरे माज़ी के वो सांप
देख के मुझसे घबराने न लगो
दिल धड़कता है जब तह में उतरते हो तुम
मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम

अपनी आँखों में सवालात से गढ़ते हो तुम
मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम



- योगेश शर्मा

8 टिप्‍पणियां:

  1. खुबसुरत भाव है आपकी रचना का। चेहरा पढ़ना इतना आसान नही होता। हर कोई चेहरे पर चेहरा लगा कर बैठा है।

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  2. चेहरे पढना भी एक कला होती बहुत खुबसूरत अहसास और उनकी अदायगी मुबारक हो

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  3. अपनी आँखों में सवालात से गढ़ते हो तुम
    मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम

    खूब कहा .....प्रभावित करती पंक्तियाँ

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  4. बहुत बढ़िया लिखा!

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  5. aankhon se sawalat ka gadhna...aur chehre ko padhna...

    wah wah...kash koyi mere chehre ko bhi padhta aur mujhe sukoon milta...
    chaliye kam se kam aapki kavita se sikoon zarur mila...bahut acchhe bhav...achhi rachna...

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  6. एक ज़रा डर है कि मुझको समझने के बाद
    मुझसे तुम शायद कतराने न लग जाओ कहीं
    मेरी हस्ती, मेरे ज़ेहन, मेरे माज़ी के वो सांप
    देख के मुझसे घबराने न लग जाओ कहीं
    दिल धड़कता है जब तह में उतरते हो तुम
    मेरे चेहरे पे हर वक्त क्या पढ़ते हो तुम
    बहुत खूब !

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